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________________ आत्मतत्त्व का साक्षात्कार -संघ प्रमुख श्री चन्दन मुनि जहाँ अध्यात्म की बात उठती है वहीं परमात्मा के साक्षात्कार का प्रश्न उठ खड़ा होता है। परमात्मा क्या है ? उसका साक्षात्कार कैसे किया जाय ? बिना साक्षात्कार के केवल सुनी हुई बात पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? आज का वैज्ञानिक युग प्रयोगात्मक ज्ञान का युग है । विज्ञान केवल सिद्धान्त नहीं देता उनका प्रैक्टिकल रूप प्रस्तुत करता है। इसलिए आज के मनुष्य को आत्मा-परमात्मा के दर्शन को समझाने में शास्त्रों की दुहाई काम नहीं देती। बिना अनुभव की श्रद्धा स्थिति नहीं पा सकती । भगवान् महावीर की दृष्टि भी प्रयोगात्मक रूप को पुष्टि देती है। वे नहीं कहते कि 'मैं कहता हूँ इसलिए तुम मान लो वे कहते हैं 'अपणा सच्च मेसेजा' तुम अपनी आत्मा से सत्य की खोज शुरू करो, स्वयं सत्य का दर्शन करो । केवल दर्शन नहीं सम्यग् दर्शन करो, फिर सम्पद-ज्ञान और सम्यक्-चरित्र को विकसित करो। सम्यक् दर्शन ही शब्दान्तर से साक्षात्कार का द्योतक है। | आमतौर पर जैन लोग सम्यग्दर्शन को श्रद्धा से जोड़ते हैं पर वास्तव में थोड़ा-सा फर्क है । श्रद्धा पैदा की नहीं जा सकती, सम्यग्दर्शन सम्यक् अवलोकन के कारण स्वयं उत्पन्न हो जाती है। उसे थोपा नहीं जा सकता वह स्वतः उद्भूत हो जाती है। वह सम्यग्दर्शन की परिणति है। हाँ, तो प्रश्न यह है कि आत्म-साक्षात्कार Jain Education International कैसे किया जाय ? इसी विषय पर दिगम्बर - आम्नाय के उज्ज्वल नक्षत्र पूज्यपाद स्वामी 'समाधिशतक' में लिखते हैं सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति, तत् तत्त्वं परमात्मनः ॥ - सं० श० ३० सभी इन्द्रियों का संयम करके स्तिमित- शान्त, निर्विकल्प अन्तरात्मा के द्वारा क्षणभर देखने वाले को जो भासित होता है वही परमात्मा-तत्त्व है । यानि वह परमात्मा तत्त्व की ही झलक है । तात्पर्य यह है कि जब कर्णादि इन्द्रियों की संयमित करके, शब्द-रूप- गन्ध-रस स्पर्शादि से ध्यान हटाकर अन्तर्मुखी बनते हैं तब किसकी झलक भासित होती है ? वह क्या है ? इंद्रियां, मन शान्त है, पूर्ण निर्विकल्प स्थिति है वह आत्मतत्त्व है । उस शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार ही परमात्मतत्व का साक्षात्कार है जब तक हम शब्द रूप आदि इन्द्रियों के विषयों पर ही अटके रहते हैं उनका ही ध्यान है, उनका ही चिन्तन है, उनकी ही अभिलाषा है, उनका ही आकर्षण है फिर आत्मदर्शन की कैसे आशा की जा सकती है ? इस तत्त्व को तो बड़ी गहराई से पकड़ा जा सकता है, दूसरे व्यापारों को रोककर ही इसे देखा जा सकता है। आद्यशंकराचार्य ने 'विवेक चूड़ामणि' में आत्मदर्शन का उपाय बतलाते हुए कहा है : नष्टे पूर्व विकलने तु, यावदन्यस्य नोदयः । निर्विकल्पिक चैतन्यं, तावतुस्पष्ट विभासते ॥ पूर्व विकल्प के नष्ट हो जाने पर जब तक दूसरा विकल्प उदित नहीं होता, इसके बीच जो एक सूक्ष्म समय स्पष्ट आभास है उसमें निर्विकल्पिक चैतन्य का मिलता है। ? अर्थात् एक विकल्प आया और चला गया, दूसरा विकल्प अभी पैदा नहीं हुआ, उसके बीच की जो स्थिति है वह किसकी है केवल साक्षीभाव से देखनेवाला ही उसे पकड़ सकता है । वे आत्म-दर्शन के क्षण होते हैं । एक माला का एक मनका जैसे आगे खिसका दूसरा मनका जब तक उस मनके से संलग्न नहीं हुआ, उन दो मणकों के [ २३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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