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जैन चित्रकला
मानव संस्कृति में प्रारम्भ से ही मन की शक्ति प्रवणता के कारण कल्पना सृष्टि के उन्मेष विस्तीर्ण होने का अवसर सुलभ था । उसके मस्तिष्क में सर्वप्रथम पट, रंग और तूलिकादि उपादान विहीन कल्पना चित्र उभरे । प्रकृति ने उसे विविध रंग दिये, अंगुलियों ने आकाश प्रदेश का अशेष पट प्राप्त किया । भगवान के गुण वर्णन में भी वह अनन्तता की अभिव्यक्ति करने के हेतु ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करने लगा, जो कि निम्न दोहे से स्पष्ट हैगयणंगण कागल करूं, सायर कर मसिपात । मेरुगिरी की लेखनी, तुहि गुण लिख्या न जात ॥
प्रस्तुत कल्पना शब्दालेखन की है न कि चित्रांकन की। कल्पना चित्रों को साकार रूप देने में प्रकृति, भौतिक वस्तुए, प्राणी जगत् और आलोक अद्भुत छाया एवं पंच वर्ण के बादलों में उभरती हुई विविध आकृतियों ने भी बड़ा योगदान दिया । इन्हीं आधार शिला पर घटनाए और भाव प्रधान अभिव्यक्तियाँ चित्रित हुई। कतिपय गुफाओं के आदिकालीन चित्रों में प्राणी जगत के साथ-साथ शिकार आदि घटनाओं का चित्रण पाया जाता है। लोकचित्र शैली इन्हीं गुफाओं में हम देखते हैं किन्तु इनका प्रारंभिक रूप गृहाङ्गण, गृहद्वार और भित्ति दीवालों पर रंगोली मृतिका रंग के रूप में आया जो कि
एक पर्व में बनते और दूसरा पर्व आने पर स्वाभाविक रूप से नष्ट हो जाते या उसे लीप-पोतकर नव निर्माण कर दिया जाता । गुहा चित्रों के विकास में आगे जाकर कुछ सधी हुई तूलिका और रंग विन्यास का उन्नयन हुआ। प्राचीन साहित्य के आलोड़न से हम उसके साकार रूप धारण करने की कथा-वस्तु पर विमर्श करेंगे। तो वह भी मनोवर्गणा के पर्यायों से संपृक्त प्रतीत होगी। किसी वस्तु विशेष को देखकर मन पर दबाव पड़ता है
और स्मृति के परत खुलते जाते हैं। ऐसी स्थिति में मानव अपने शरीर निर्माण से पूर्व की स्थिति को भी स्मृति पटल पर लाने में सक्षम हो जाता है जिसे जैन शैली में जाति स्मरण ज्ञान कहते हैं। उस अवस्था में उसे अपने पूर्व जन्म के वृत्तिन्त फिल्म की भाँति साकार हो जाते हैं । यह भी एक विशिष्ट स्थिति है। इसके माध्यम से भी चित्रकला को साकार होने में प्रश्रय मिला । आदिनाथ चरित्र में ललितांगदेव और स्वयंप्रभा देवी का रूप जाति-स्मृति द्वारा साकार होने पर अपने पूर्वजन्म देवलोक के साथी को खोजने के लिये चित्रपट का आश्रय लिया जाता है। जैन रामायण में नवकार मंत्र सुनाने वाले सेठ के साथ वृषभ का जीव राजा होकर अपना चित्र जिनालय के शिल्प में साकार कराके अपने उपकारी की पहचान प्राप्त करता है । तरंगवती मी पूर्व जन्म की जाति-स्मृति द्वारा चित्रपट आलेखन कर उसी के माध्यम से अपने प्रियतम को प्राप्त करती है। एक अन्य कथावस्तु में वृक्ष पर निवास करने वाले शुक के जोड़े को दावानल में दग्ध भाव की भवान्तर में चित्राङ्कन द्वारा स्मृति करायी जाती है। भगवान मल्लि के चित्र भाई के महल में चित्रकार द्वारा निर्माण से प्रताड़ित चित्रकार द्वारा नवनिर्माण की कथा पर्याप्त प्रसिद्ध है । प्राचीन साहित्य में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं । मंखलीपुत्र गोशालक जिस जाति का था वे चित्रपट दिखाकर ही अपनी आजीविका चलाया करते थे। बाद में उसकी आजीविका अष्टांगनिमित्त के
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