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परिकर, तोरण, भामण्डलादि प्रातिहार्य युक्त है। यहाँ की प्रतिमाओं के तोरण ऊपरि भाग में न होकर प्रभु के पृष्ठ भाग में सांची तोरण की भाँति हैं । अम्बिका नगर की ऋषभदेव प्रतिमा का तोरण इसी प्रकार का है । दूसरी प्रतिमा के परिकर में अष्टग्रह प्रतिमायें विद्यमान हैं। अम्विका देवी की एक खड़ी हुई प्रतिमा है एवं तीन प्रतिमाएं वृक्ष युक्त हैं। जिनमें एक में ऊपरि भाग में जिन प्रतिमा. वृक्ष के नीचे यक्ष-यक्षिणी और निम्न भाग में सप्त ग्रह मूर्तियाँ हैं। दूसरी प्रतिमा के निम्न भाग में सिंहासन के नीचे दो कलश बने हुए हैं. जिनकी रचना शैली वङ्गाल के कलशों से अभिन्न है । तीसरी प्रतिमा भी वृक्ष तल में यक्ष-यक्षिगी वाली है। एक शांतिनाथ स्वामी की खण्डित प्रतिमा है जिसमें प्रभु का लांछन हरिण स्पष्ट परिलक्षित है। एक तीर्थंकर प्रतिमा
और एक चतुर्विशति तीर्थङ्कर प्रतिमा है। एक चौमुख मन्दिर सर्वतोभद्र और एक चतुमुख स्तूप भी इन प्रतिमाओं के मध्य में विद्यमान हैं।
की गोद में बालक भगवान् को दिखाया गया है । लगभग ३१ वर्ष पूर्व क्षत्रियकुण्ड लछुवाड़ की धर्मशाला में मैंने एक काली पाषाण की लेख सहित पन्द्रह सौ वर्ष से भी प्राचीन प्रतिमा त्रिशला माता और गोद में भगवान् महावीर की देखी थी जो कुछ दिन बाद ही वहाँ से गायब हो गई । शिल्प शास्त्र और मूर्ति विज्ञान के विद्वान इस पर विशेष प्रकाश डालें । जंबू वृक्ष, शाल्मलि वृक्ष आदि पर शाश्वत जिन बिम्बों का उल्लेख है, जिनके भी शास्त्रों में वर्णन मिलते हैं। हमारे संग्रह में एक-दो सौ वर्ष प्राचीन सुन्दर चित्र में वृक्ष पर अर्हन्त प्रतिमा और सामने चतुर्विध संघ, पूजोपकरण लिये भक्तादि दिखाये हैं, पर वह भाव भी किस हेतु का है, विचारणीय है ।
वस्तुतः वङ्गाल का प्राचीन धर्म ही जैनधर्म था । वङ्गाल में यत्र-तत्र सर्वत्र जैन अवशेष ही पाये जाते हैं। हमें इन स्थानों में कहीं भी बौद्ध प्रतिमायें दृष्टिगोचर नहीं हुई। इन विभिन्न शैली और कलात्मक प्रतिमाओं का अध्ययन समय सापेक्ष है । हम तो वहाँ केवल पन्द्रह मिनट ही रुके थे । जिन प्रतिमा निर्माण शैली का प्रवाह सर्वत्र व्याप्त था । ऐसी प्रतिमायें बिहार में भी देखने में आई है।
पाकविड़रा से हम दो बजे पूंचा पहुँच गये और वस में बैठकर सीधे पुरुलिया स्टेशन आ पहुँचे । यद्यपि श्री ताजमल जी साहब और भी स्थानों में चलना चाहते थे और तीर्थाधिराज श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा करने की प्रबल भावना भी थी पर मौसम और मार्ग-प्रतिकूलता ने हमें कलकत्ता लौटने को बाध्य कर दिया ।
यहाँ मैंने जिन यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं का उल्लेख किया है वस्तुतः यह निर्णय नहीं, कई विद्वानों ने इन्हें भगवान् के माता-पिता और कइयों ने यक्ष-यक्षिणी माना है पर मेरे विचार में यह विधा अभी विचारणीय है अतः स्त्री-पुरुष जोड़ी कह सकते हैं। माता-पिता की प्रतिमा वृक्ष के नीचे हो और वृक्ष पर अर्हन्त प्रतिमा हो, यह वात तर्कसङ्गत नहीं लगती। भगवान् की माताओं की मूर्तियाँ 'चतुर्विशति जिन मातृ पट्टक' बीकानेर, जैसलमेर आदि अनेक स्थानों में विद्यमान हैं पर उनमें माता
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