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वृद्धि करते हैं । धर्मशाला की दीवारों पर सैकड़ों सुभाषित
और शिक्षाप्रद दोहे श्लोक लिखे हुये हैं जो बड़ी प्रेरणा- दायक सुरुचिपूर्ण पद्धति में है ।
बाँकुड़ा से दूसरे दिन प्रातःकाल रवाना होकर हम रेल द्वारा इन्द्रबीला पहुँचे और स्टेशन से अनतिदूर स्थित महाल कोक नामक गाँव में गये । यहाँ हमारे पूर्व परिचित जयहरि श्रावक का निवास स्थान है। ये सराक भाई सुसंस्कृत और जैन शिक्षा-दीक्षा से सुपरिचित होने के साथसाथ राजस्थान, वङ्गाल. विहार, महाराष्ट्र. गुजरात और उत्तरप्रदेशादि के सभी जैन तीर्थों में घूमे हुए हैं और जैन धर्म के प्रचार कार्य व साधुजन सेवा में ही इनकी रुचि रही है। कई वर्ष पूर्व जब यहाँ से निकटवर्ती तालाजुड़ी गाँव में भगवान आदिनाथ स्वामी की पद्मासनस्थ प्रतिमा तालाव के पाल पर प्रगट हुई थी, उस समय मैं श्री ताजमल जी साहब बोथरा के लघु भ्राता श्री हनुमानमल जी बोथरा के साथ यहाँ आया था और इन्हीं के यहाँ प्रेमपूर्ण वातावरण में ठहरकर तालाजुड़ी जाकर प्रभु दर्शन किये । अब यह प्रतिमा श्री ताजमल जी बोथरा एवं अवस्थ सराक बन्धु के प्रयत्न से कलकत्ता आ गई है और बड़े मंदिर में विराजमान है । महाल कोक में कुल ३० घरों की छोटीसी साफ-सुथरी वस्ती है जिसमें १२ घर सराकों के हैं। यहाँ एवं इधर के कई गावों में हिन्दुओं के घरों की दीवार पर चारों ओर एक काली-सी धारी-पट्टी दृष्टिगोचर होती है जो रोहण-मनसा पूजा का प्रतीक बतलाया जाता है । सराक लोग जैन धर्माचार विस्मृत होकर बंगाल के देवी पूजा आदि को मान्य करने लगे हैं पर शताब्दियाँ वीत गईं. जैन सम्पर्क छूट गया फिर भी खान-पान में शुद्ध निरामिष भोजी संस्कार आज भी विद्यमान है।
उचित समझ हम उनके यहाँ एक दिन और एक रात्रि का आतिथ्य ग्रहण कर रेल द्वारा आद्रा आये। रेल लेट होने से पूंचा जाने वाली वस निकल चुकी थी अतः तीन घण्टों की प्रतीक्षा कर दूसरी वस में बारह बजे 'पूंचा' गाँव आये । यहाँ से दो-ढाइ मील दूर पाक वड़रा है। हमें तो वहाँ जाकर तत्काल लौटना था, क्योंकि ढाई बजे की वस निकल जाने से हमें फिर एक अहोरात्र वहीं रहना पड़ता। अतः अपना सामान वहीं सुनील ठाकुर नामक सज्जन की दुकान में रख कर शीघ्र गति से पाकविड़रा पहुँचे । उस दिन वहाँ मेला होने से ग्राम्य-जन सैकड़ों की संख्या में एकत्र थे । मदोन्मत्त स्त्री-पुरुषों के समूह अपने गले में ढोल-ढक्कादि वादित्र वजाते हुए नाच रहे थे । वे लोग जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमाओं को भैरव मानकर पूजते थे। पाकविडरा की सभी प्रतिमायें और भग्नावशेष एक ही अहाते में रखे हुए थे. जिसमें प्रविष्ट होने पर आसानी से दर्शन किया जा सकता था। इसमें अवस्थित सभी जिन प्रतिमायें अव्यवस्थित ढङ्ग से पड़ी थी। ७ फुट ऊँची खङ्गासन स्थित श्री पद्मप्रभु स्वामी की प्रतिमा-जिसका परिकर नहीं था, केवल उभयपक्ष में चामरधारी इन्द्र अवशिष्ट थे: प्रभु लांछन भी पूजन-सामग्री से ढक जाने से दृष्टिपथ लुप्त था-के दर्शन किये जो ग्राम्य-जनों के पूजनकेन्द्र थे।
पाकविरा के इस स्थान में तीन चार मन्दिर आज भी खड़े हैं पर वे खाली पड़े हैं और अखण्डित-खण्डित सभी अवशेष इसी अहाते में लाकर रख दिये गये हैं। यहाँ कतिपय विभिन्न शैली और विधाओं की प्रतिमायें दृष्टिगोचर हुईं। भगवान् आदिदेव, ऋषभ प्रभु की पाँच प्रतिमायें हैं जिनमें दो चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमा परिकर युक्त हैं । एक पंचतीर्थी परिकर युक्त और दो खण्डित हैं, जिनमें से एक के तो दो खण्ड हुये पड़े हैं। भगवान महावीर की दो प्रतिमायें हैं जिनमें एक पंचतीर्थी
हमारा उद्देश्य था कि भाई जयहरि को साथ लेकर पाकविरा आदि उधर के प्राचीन जैन खण्डहरादि स्थानों में घूम कर जैन-अवशेषों का अध्ययन करें पर वे स्वयं उस तरफ गए हुए नहीं थे, अतः उन्हें कष्ट न देना
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