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________________ आश्रित हो गई। वह आजीवक कहलाता था । किसी भी साधारण या सर्वोत्कृष्ट काल-वैभवपूर्ण स्थापत्य का निर्माण करने के लिए पहले उसके चित्र निर्माण द्वारा ही सारी रूप-रेखा निर्णित की जाती है अतः इस दष्टिकोण से शिल्प-स्थापत्य कला की जननी भी चित्रकला को मानना समीचीन होगा। समस्त प्रकार के यान्त्रिक उपादान और टंकशाल की मुद्राए व संचे सभी चित्रकला के आभारी हैं। जैनागमों के परिशिलन से चित्रकला की तत्कालीन स्थिति बड़ी विकसित मालम देती है । चित्रकला सामग्री में चित्र निर्माण योग्य तूलिका और रंगों के उपयोग का विशद् वर्णन पाया जाता है। सर्वप्रथम चित्रयोग्य भूमि को तैयार करने में भित्ति, कागज, वस्त्रादिको को घोटाई करके दर्पण की भाँति प्रतिविम्ब दर्शी बनाया जाता था। एक कथा में चित्रकार ने केवल भित्ति की घोटाई पर्दे की ओट में की । सामने की दीवाल का चित्रकार अपना सम्पूर्ण चित्र निर्माण कर चुका था। राजा ने चित्रकार को इस अप्रत्याशित विलम्ब के लिये उलाहना दिया कि अभी तक चित्रांकन प्रारंभ ही क्यों नहीं हुआ। उसने परदा हटाया तो दर्शक इस बात पर विस्मित हो गये कि सामने की दीवार का चित्र इसमें पूर्णतया प्रतिविम्बित है। रंगों के निर्माण विपराक ऐसी ही वात प्रसिद्ध है कि ताजमहल में पत्थर पर म.ने का कार्य करने वाला एक कलाकार महीनों तक रंग की घोटाई करता रहा । जव उसे इसके लिये उलाहना मिला तो स्वाभिमानी चितेरे ने रंग को कुण्डी को उठाकर पत्थर पर दे मारा। सारा रंग उसपर गिर गया । बाद में देखा गया कि वह रंग पत्थर में खूब गहराई तक जा पहुँचा था। कि वह द्विपद, चतुष्पद और वृक्षादि के एक भाग को देखकर परिपूर्ण चित्रालेखन करने में सक्षम था । आवश्यक चूणि में एक ऐसे नटपुत्र का उल्लेख है जिसने क्षिप्रातट की बालुका पर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से एक बार देखी हुई उज्जयिनी नगरी का मानचित्र आलेखित कर डाला था। वहत्कल्प भाष्य में निदोष और सदोषचित्र कम बतलाये हैं उनमें वक्ष, भवन, पर्वत, नदी, लता-वितान एवं स्वस्तिकादि मांगलिक पदाथों के चित्र निर्दोष एवं स्त्रियों आदि के चित्रों को सदोष कहा है । आवश्यक चूणि में कहा है कि एक परिव्राजिका ने चेटक महाराज की पुत्री सुज्येष्ठा का चित्रफलक महाराजा श्रेणिक को दिखलाया जिससे वह अपनी सुध - बुध भूल गया था । वृहत्कल्प भाष्य पीठिका में भी सागरचन्द्र के कमलामेला के चित्र दर्शन से प्रेम करने लगना उल्लिखित है । जैनागमों में वर्णित स्त्री की चौसठ कलाओं में चित्रकला भी एक है। भगवान पार्श्वनाथ के महलों में कथावस्तुजनित भित्ति चित्र बने हुए थे जिनमें भगवान नेमिनाथ की बारात और पशु बाड़े को देखकर उनके वैराग्य प्राप्त अभिनिष्क्रमण के चित्र मावों पर विचार करते ही वे संसार से विरक्त हुए थे। राजा शतानीक की रानी मृगावती के चित्र को देख कर ही मालवपति चण्डप्रद्योत ने उसे प्राप्त करने के लिये ही कौशाम्बी पर आक्रमण किया था । इस कथा सन्दर्भ में यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस काल में राजमहलों में चित्र समाएँ अवश्य हुआ करती थीं। चित्रकार लोग अत्यन्त कलादक्ष थे जो किसी के शरीर का एक अवयव देख कर उसका सारा चित्र हुबहू अविकल चित्रित कर देते थे। मृगावती के चित्र को बनाने वाले का दाहिना हाथ शतानीक ने कटवा दिया था फिर भी उसने बाँये हाथ से उसका चित्र बनाकर प्रद्योत को दिखाया था। ज्ञाता धर्म कथा में चित्रांगद की पुत्री वनकमंजरी ज्ञाता सूत्रानुसार मिथिला के मल्लदत्त ने निष्णात चित्रकारों से हाव-भाव-विलासपूर्ण चित्रकला का निर्माण करवाया था। उसमें एक चित्रकार में इतनी विलक्षणता थी [ १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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