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________________ द्वारा चित्रित कुट्टम तल का मोर इतना तादृश था कि राजा को उसे हस्तगत करने के लिए हाथ फैलाकर नखक्षत कर लेने के साथ-साथ हास्यपात्र होना पड़ा था। चार प्रत्येक बुद्धों में से दुर्मुखराजा ने स्थपति से चित्रसभा तैयार करवा कर उसमें शुभ महर्त में प्रवेश किया जिसका उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णन मिलता है। राजाओं और वाराङ्गनाओं के रंग महल शृंगार रसपूर्ण वात्स्यायनादि से सम्बन्धित चित्र समृद्धियुक्त विविध प्रकार के भावोत्तेजक हुआ करते थे। कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास कर निर्विकार रहने वाले महामुनि "स्थूलिभद्रात अपरो न योगी" कहलाये थे। यद्यपि प्रागैतिहासिक काल और आगमकाल की प्राचीन चित्र समृद्धि के नष्ट हो जाने से आज केवल कुछ आदिवासियों के टेढ़े-मेढ़े अंकन ही कतिपय गुफाओं में द्दग्गोचर होते हैं पर उन चित्रों को सुकुमाल पीछी से नहीं किन्तु स्थपति की छैनी हथौड़ी से उत्कीर्णित विविध विधाएं आज भी पर्याप्त उपलब्ध हैं। भूमि उल्खनन से प्राप्त न केवल टेराकोटा ही अपितु मिट्टी के घड़े आदि पर भी चित्रकलाभिव्यक्ति के विकीर्ण खण्ड यत्र-तत्र मिलते हैं। पदुकोटा से १० मील यह एक छोटा-सा गांव है। सित्तनवासल अर्थात् सिद्ध व महापुरुषों का निवास स्थान । यह स्थान चारों ओर नार्थमलय पर्वत. पल इयादिपटी. कुदुमीय मलय और कुन्नानद कोईल नामक पर्वतों से घिरा हुआ रमणीक स्थान-छोटा सा गाँव है । सित्तनवासल का गुफामन्दिर तिरुच्चिरापल्ली के निकट है और वहाँ पल्लव कालीन चित्रकला की प्राचीन कलाकृतियाँ विद्यमान हैं। इसका निर्माता महेन्द्र वर्मा प्रथम पल्लव वंशीय राजा था और वह सातवीं शती के प्रारम्भ में हुआ है । नौवीं शती के प्रारम्भ में पाण्डया काल में इन गुफाचित्रों का पुनरुद्धार हुआ था परन्तु इसके पल्लवकालीन चित्रों पर किसी भी प्रकार की इतरपरत नहीं चढ़ी थी। गुफा मन्दिर का एक तमिल भाषा का पद्य लेख मदुरै के जैनाचार्य इलन गौतमन् द्वारा अर्द्ध मण्डप के पुनरुद्धार, अलंकरण और मुख मण्डप के निर्माण का उल्लेख करता है। पल्लव महेन्द्र वर्मा की भाँति पाण्ड्य अरिकेशरी परांकुश भी बाद में शैव हो गया था परन्तु गुफामन्दिरों का सम्बन्ध जैन परम्परा की अविच्छिन्नताओं को प्रकाशित करता है । यहाँ के भित्तिचित्रों में जलाशय के मत्स्य, पशु, पक्षी, कमलनाल युक्त पुष्प और पुष्प चयन आदि के शान्त और भावोत्पादक चित्र बड़े ही मनोज्ञ हैं। कमलनाल, बत्तक, मत्स्य और भैंसों के चित्र बड़े सुन्दर और स्वाभाविकतापूर्ण है। इन चित्रों का रंग और आकृतियाँ सौष्ठवयुक्त हैं। नर्तकी और मुकुटबद्ध राजदम्पत के चित्र बड़े सरल व प्रेक्षणीय करविन्यासयुक्त हैं। कमनीय देहयष्टि वाले प्रमाणोंपेत चित्रों की भावभंगिमा वस्तुतः आकर्षक और उस काल की प्रतिनिधि चित्र कलाभिव्यक्ति है । जैन साधु का एक चित्र केवल शान्त और सादगी का वातावरण इंगित करता है। गुफा में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिभा होने से उनकी जीवनी से सम्बन्धित इस चित्र में कलिकुण्ड पार्श्वनाथ तीर्थोत्पत्ति और हाथी द्वारा अभिषेक किये जाने के भाव हैं । सित्तनवासल के पश्चात् एलोरा की इन्द्रसभा की भित्तिचित्र प्राचीन भारतीय जैन चित्रकला के विहङ्गावलोकन के अनन्तर आइये हम वर्तमान में उपलब्ध जैन चित्रकला के उस संबल पक्ष की ओर दृष्टिपात करें जो अपने आप में जैन चित्रकला की एक अनूठी और गौरव पूर्ण देन है। कागज, ताड़पत्र, वस्त्र, काष्ठफलक और कूटे के चित्र सहस्राब्दि पूर्व के यद्यपि तिरोहित हो चुके हैं प्ररन्तु सार्द्ध सहस्राब्दि पुराकालीन भित्तिचित्र केवल गुफाओं में ही वच पाये हैं। अजन्ता की प्राचीन कला समृद्धि भारतीय श्रमण संस्कृति बौद्ध शाखा से सम्बन्धित है जबकि जैन चित्रकला को साकार उपलब्धि हम सित्तनवासल के गुफा मन्दिरों में आज भी देखते हैं । मद्रास से २५० मील और १२८ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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