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चित्रित कल्पवासी देव समूह के चित्र प्रारंभिक सतह के हैं। इसके विस्फारित नेत्र और रत्नाभरण बड़े मोहक हैं। दूसरी सतह विजयनगर चित्र शैली में चित्रित
भित्तियाँ एवं छत के चित्र बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। यह स्थान औरंगाबाद से १५ मील दूर है । ये चित्र नौवींदशवीं शती के हैं और जैन ग्रन्थों के चित्राङ्कनों की अनुकृतियों के साथ-साथ पत्र, पुष्प तथा पशु-पक्षियों पर आधारित कलारूपों का भी मनोरम अंकन है। गोम्मटेश्वर का जो चित्र यहाँ उपलब्ध है, श्रमणबेलगोला की प्रतिमा शैली से उसकी तुलना की जा सकती है । ध्यानस्थ भगवान् बाहुबली के पैरों में चींटियों के वल्मीक एवं लतागुल्म देहयष्टि के चतुर्विंग आवेष्टित हैं । छत का एक कक्ष दिक्पाल समूह के चित्रांकनों से समृद्ध है। मेघ-छटा के मध्य व्योमचारी देव-देवियों और आलिंगन बद्ध विद्याधर दम्पति की सुकुमार शरीर-रचना विशाल नेत्र आदि का अंकन चित्रकला की परमोन्नत शैली के उदाहरण हैं। उनका पुष्पाञ्जलि अर्पण, पंचशब्द · शंखवादन. तालबद्ध संगीत आदि युक्त गणों के चित्र भी कम महत्त्व के नहीं हैं । दक्षिणात्य राष्ट्रकूट वंश के शासनकाल में रचे गये चित्रों के ये अवशिष्ट नमूने समस्त भारतवर्ष की तत्कालीन कला-शैली को प्रभावित करने वाले और जैन चित्रकला परम्परा की अमूल्य देन मानना पड़ेगा। गुफा नं० ३२-३३-३४ की छत पर ये भित्ति चित्र बने हुए हैं जिनकी प्रतिकृति बनवाकर इस अमूल्य देन को सुरक्षित रखना चाहिए ताकि आगामी पीढ़ी भी चिरकाल तक लाभान्वित हो।
काष्ठ फलक व ताड़पत्रीय चित्र
भित्ति चित्रों के पश्चात् काष्ठफलक चित्र व ताड़पत्रीय चित्रों की बारी आती है । दक्षिण शैली की परंपरा में होयसल कालीन भित्तिचित्र उपलब्ध नहीं हैं पर विष्णुवर्द्धन (सन् ११०६-४१) जिसे रामानुज ने वैष्णव बना लिया था–ने बेलूर और हलेविड में सुन्दर मन्दिर निर्माण कराये थे । उसकी रानी जैन धर्मावलम्बी थी एवं मंत्री गंगराज व सेनापति हुल्लि दण्डनायक भी जैन थे । उसकाल के उत्कृष्ट स्थापत्य व शिल्प कला-कृतियाँ होते हुए भी भित्ति चित्र के उदाहरण अवशिष्ट न होने से मूडबिद्री के भण्डार की होयसलकालीन चित्रकला पर ही हमें दृष्टिपात करना होगा। यहाँ की भट्टारक पीठ की ताडपत्रीय पाण्डलिपियाँ और उनके चित्र होयसल काल के हैं एवं उनकी लिपि विष्णुवर्द्धन के ताम्रशासनादि से मिलती-जुलती है । चित्रों की रंग की चटक
और रेखांकन बेलूर मन्दिर के धातु पत्रों के पुष्पाकारों से निकटता रखती है जो विष्णवद्वंन और उसकी जैन पत्नी शांतला के समकालीन मानने को प्रेरित करती है। ___ ताड़पत्रीय ग्रन्थ लम्बे तो पर्याप्त होते थे पर उनकी चौड़ाई सीमित होने से भित्ति चित्रों की माँति विशालता का अभाव होते हुए भी छोटे-छोटे चित्रों की शैली और रेखांकन में कोई अन्तर नहीं आता, अतः चित्रकला व लेखनकला की उभय दृष्टियों से इनका महत्व निर्विवाद है। दिगम्बर परम्परा के जैनागम षट् खण्डागम की धवला टीका की प्राचीन पाण्डलिपि मूड-बिद्री के भण्डार में सं० १११३ की है। इस पर तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की शासनदेवी काली का चित्र वृषभ वाहन युक्त हैं। गौरवर्णा देवी की सुकोमल देह को उजागर करने वाली लाल रंग की रेखाएं
नौवीं शती के चोल शासक भी बड़े कला-प्रेमी, उदार व अपने शैव धर्म के प्रति निष्ठावान होने के साथसाथ सभी धर्मों में समभाव रखते और प्रश्रय देते थे। तंजावुर में राज-राज ने कलापूर्ण शिवालय बनवाया. उसकी बहिन कुंदवइने तिरुमल्ले तथा अन्य स्थानों पर जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था । चोल कालीन चित्र जो जैन स्मारकों में हैं वे नतमल्लै के बाद के हैं। इनमें विजयनगर शैली का सम्मिश्रण है । .लक्ष्मीश्वर मण्डप के निम्नतल और बाह्यकक्ष पर
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