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में वृक्ष है । मध्यवर्ती देवी के उभयपक्ष में चामरधारिणी परिचारिकाओं के बल खाए हुए कमनीय देह चित्र हैं और हरित वर्ण की कंचुकी परिधापित है । श्रुतदेवी के अंकुशपाश तो दिखाए हैं पर वीणा, कमण्डलु, पुस्तक आदि का अभाव इतर देवी होने की आशंका पैदा करता है।
लहरदार और बल खाती हुई हैं। वषभ के शृंग दक्षिण भारत के बैलों के अनुरूप हैं। द्वितीय कक्ष में अंकित भक्त परिवार का चित्र भी अत्यन्त मनोहर है। पर उसका ऊपरि भाग नष्ट हो गया मालम देता है। इसके केन्द्रवर्ती चित्र में भगवान महावीर स्वामी की दो सुन्दर प्रतिमाएं चित्रित हैं जिनमें एक पद्मासन और दूसरी खङ्गासन मुद्रा में स्थित है । पद्मासनस्थ प्रतिमा के आसन पर मकराकृति अलंकरण व उसके पृष्ठ भाग में सिंह व उभयपक्ष में चामरधारिणी मनोरमरूप से अंकित है। प्रभु के मस्तक पर छत्र व पृष्ठभाग में प्रभामण्डल फलक की भाँति गोल है। खङ्गासन की प्रतिमा परिकरविहीन और निम्नमाग में जानु से कुछ नीचे तक चरण-विहीन है। ताड़पत्र के रंगीन चित्र में भगवान पुष्पदन्त ( सुविधिनाथ) के अजितयक्ष तथा दूसरे कक्ष में दो भक्तगण अवस्थित दिखाये हैं । इन उभय चित्रों में एक ही रंग और लाल रेखाओं से आकृति अलंकरण है।
भगवान् वाहुबली का चित्र ( फलक २०) हरित वर्ण का और खङ्गासन स्थित है जिसकी पृष्ठभूमि लाल रंग की है पर उभयपक्ष में खड़ी हुई ब्राह्मी सुन्दरी बहिनें हरित पृष्ठभूमि पर हैं। गौर वर्णा बहिनों के वस्त्रपट लाल रंग के लहरदार हैं । बाहुबलीजी के पैरों पर लताए परिवेष्टित दिखाई हैं। फलक (२१) की श्रुतदेवी उपर्युक्त नं० १९ के सदृश है । दक्षिण भारत की ताडपत्रीय पाण्डलिपियों में और भी अनेक चित्र हैं । सिंहवाहिनी अम्बिका आम्र वृक्ष के तल उभय शिशुओं सहित जैन स्थापत्य में अति प्रसिद्ध हैं। उनका चित्र भी यहाँ उपलब्ध है। तीथंकर पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ और भक्तमण्डली. पूजा-अर्चा की सामग्री. गजवाहन युक्त मातंग यक्ष, श्रुतदेवी और महामानसी, हंसवाहिनी, कच्छप वाहनवाला अजितयक्ष आदि के चित्र भी होयसल कला के प्रभावोत्पादक कलामय सृजन है।
मूडविद्री की भव्य पाण्डुलिपियों में लाल रंग के साथ हरे रंग का भी उन्मुक्त प्रयोग हुआ है । एक पाण्डुलिपि में भगवान पार्श्वनाथ का चित्र पत्ते जसे हरितवर्ण का है. अवशिष्ट लाल रंग प्रयुक्त है । प्रभु के मस्तक पर सप्त फण छत्र है । प्रभु के आसन में उभय पक्ष में सिंह परिलक्षित है । उभयपक्ष में चामरधारी परिचारक हैं जिनकी भावभंगिमायुक्त आकृति उभयपक्ष में मुड़ी हुई और कमनीय है। उष्णीषादि अलंकरण प्रेक्षणीय हैं। दोनों और हरित पृष्ठभूमि पर धरणेन्द्र एवं पद्मावती के चित्र बने हुए हैं । धरणेन्द्र का चार भुजाओं वाला खड़ा चित्र है, उसके मस्तक पर सप्तफण सुशोभित है । पद्मावती के चित्र में भी चारों हाथों में अंकुशपाश आदि विविध आयुध हैं। देवी के मस्तक पर भी सप्तफण मण्डित हैं और उलटे हुये कमल पंखुड़ियों वाले आसन के निकट श्वेत हंस बैठा हुआ है। दूसरा कक्ष (फलक १९) श्रुतदेवी का बताया है जिसके उभयपक्ष
दक्षिण भारत की परवर्ती भित्तिचित्र कलाशैली यद्यपि सित्तनवासल आदि से अपनी कड़ियाँ जोड़नेवाले साक्ष्यों के अभाव में अलग श्रृंखला हो जाती है पर सन् १३३५ में हरिहरने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की तो उसके वंश के चार सौ वर्ष व्यापी शासनकाल ने सभी धर्मों को पल्लवित किया। अच्युतराय ने जैन और वैष्णव धर्मप्रमुखों को परस्पर मिलाकर सन्मानपूर्ण समझौता करा दिया। इस काल में कला का पर्याप्त उन्नयन हुआ। गोपुरों, मन्दिरों, मण्डपों की छत पर अगणित भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ, जिनमें जैन कथावस्तु के अंकन भी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखयोग्य हैं । कांचीपुरम् के
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