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लग गई ?" देवचन्द ने सारा किस्सा बताते हुए कहा
"मैं अमीचन्द से पूछकर तुम से मिलने हेतु यहाँ आया हूँ। कल प्रातःकाल तो न जाने बादशाह मेरो क्या दुर्गति करेगा ।"
देवचन्द द्वारा वर्णित सारी घटना श्रवणकर रूपसुन्दरी अत्यन्त चिन्तित हुई और थोड़ी देर तक कुछ सोचती रही। फिर वह करबद्ध होकर कहने लगो, "स्वामिन्! इतने दिनों तक हम दोनों ने किसी भी प्रकार से लेशमात्र मर्यादा का उल्लंघन किये बिना पवित्र प्रेम को निभाया है । और अब जब कि अन्तिम समय सन्निकट दिख रहा है ऐसी स्थिति में मन की हौंस मन में न रह जाय अर्थात् 'पुहुंक पण न खाधो अने हाथ पण दाधा' वाली गुजराती कहावत चरितार्थ न हो जाय। इसलिये यह चरणों की दासी प्रस्तुत है और आत्मा के साथ यह भौतिक शरीर भी जो विशुद्ध मनः संकल्प से आपके श्री चरणों में समर्पित है, यथेच्छा उपभोग द्वारा अपनो हाँस पूर्ण करें ।"
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देवचन्द ने कहा, "प्रिये रूपसुन्दरी । परमात्मा ने आज तक जो अपनो मर्यादा को सुरक्षित रखा है तो अल्पकाल के लिये क्यों इस मन, वचन और काया को अपवित्र किया जाय ? यदि हम दोनों का प्रेम सच्चा है तो अवश्य ही आगे चलकर परमेश्वर भवान्तर में अपना मिलाप करावेगा। फिर भी तुम इतना काम करना कि जब मुझे शूली देने के लिए बाहर ले जाया जाय, तुम वहाँ अवश्य उपस्थित रहना ।"
रूपसुन्दरी ने कहा, "स्वामिन में वहाँ निस्संदेह आऊंगी, पर आप मुझे पहचानेंगे कैसे ? हजारों की भीड़ के बीच खोजना भी तो कठिन होगा ।"
देवचन्द ने कहा, "यह संकेत तो तुम्हीं बताओ।" रूपसुन्दरी ने कहा, "मैं पुरुष के वेष में काले स्वांग में आकर उपस्थित होऊंगी।" देपचन्द ने कहा. "बहुत
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अच्छा, धैर्य और साहस ही हमारा संबल है।"
कहना न होगा कि बादशाह स्वयं इसी महल के कोने में छिपा छिपा सारी बातें सुन रहा था। वह साँस रोके इस प्रेमी युगल को इस एकान्त महल को इस तरुण अवस्था को इस आकर्षक रूप-राशि को, इस रात्रि के . समय को और परस्पर एकांगी प्रीति सब कुछ देख रहा था, फिर भी अपनी मर्यादा को अक्षुण्ण रखना, काजल की कोठरी में नित्य रहते हुए भी काली रेखा न लगाना । धन्यवादाह हैं ये ! देवचन्द वस्तुतः मनुष्य नहीं देव ही है. अरे ये तो वेदाग हीरे हैं । कहाँ हमारी हैवानी संस्कृति और कहाँ इस आर्यावर्त की पावन संस्कृति वस्तुतः जैसा मैंने गुरु महाराज श्रोजिनेश्वरसूरिजी से धर्म का स्वरूप सुना प्रसंगवश विजयकुमार और विजया का जो अतीतकालीन दृष्टान्त सुना, आज इस तरुण युगल में वह भावना साकार रूप में दृष्टिगोचर हो रही है । सत्य हो ऐसी अलकिक संतान के कारण ही बिना थंभे के आकाश खड़ा है तथा सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी और समुद्र अपनी मर्यादा को निभाते हुए चल रहे हैं।
इस प्रकार मन ही मन दोनों की प्रशंसा करते हुए बादशाह वजीर की हवेली से नीचे उतर गया और रूपसुन्दरी की फिर परीक्षा करने का कार्यक्रम सोचता हुआ अपने महलों में चला गया। देवचन्द ने रूपसुन्दरी से विदा माँगते हुए कहा
"आतां तथा जुहार, वलतो तणां वधामणा देव तणा विवहार मिलसुं के मिलसुं नहीं ।'
यह दोहा कह कर देवचन्द भी रूपसुन्दरी के महल से उतर कर अपने प्रिय मित्र अमीचन्द के घर आकर निश्चिन्त सो गया ।
प्रातः काल होते ही बादशाह अपनी राजसभा में आकर तख्त पर आसीन हो गया और अहलकार को आज्ञा दी कि वह अमीचन्द के पीक चिन्हित घर से
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