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देवचन्द, अमीचन्द दोनों मित्र भी पण्डित से छुट्टी पाकर अपने-अपने घर आ गए।
"यह मेरा पुत्र है।" नकाबपोश बादशाह ने कहा, "यह बादशाह का अपराधी है. इसे रात भर अपने घर में रखो, मैं प्रातःकाल इसे बादशाह के सम्मुख उपस्थित करूंगा।" देवचन्द के पिता ने कहा, "हमने इसे घर से बाहर निकाल दिया है, तुम्हारे जो जंचे सो करो।"
अब रात्रि के समय देवचन्द का वजीर की पुत्री रूपसुन्दरी के महल में जाने का नित्यक्रम हो गया। रूपसुन्दरी ने एक डोरी की निसरणी बना रखी थी जिस के अवलंबन से देवचन्द महल में निरापद पहुँच जाता
और अपने लिये बिछाये हुए आसन पर जाकर बैठ जाता। रूपसुन्दरी अपने प्राणप्रिय मित्र के साथ रात भर शास्त्र-चर्चा करती जिससे उन दोनों के अध्ययन की पुनरावृति होने के साथ-साथ बुद्धि भी विकसित होती जाती थी। वे परस्पर दूहा, गूढा. गाहा, छन्द. हीयाली, प्रश्न-प्रहेलिका, अन्तलापिका, बहिर्लापिका आदि की पृच्छा द्वारा रात्रि व्यतीत करते और जब चार-पाँच घड़ी रात रहती तो देवचन्द अपने घर आकर सो जाता।
एक दिन ज्योंही देवचन्द अपने घर से निकलकर वजीर के घर जा रहा था त्योही संयोगवश बादशाह ने देख लिया । बादशाह काली नकाब धारण किये गश्त लगा रहा था और उसके हाथ में दुधारी तलवार थी। उसने सोचा. अभी आधी रात में यह कौन मनुष्य कहाँ जा रहा है। इस बात का निर्णय करने के लिये वह देवचन्द के पीछे-पीछे हो गया । देवचन्द ने ज्योंही वजीर की पुत्री के महल में जाने के लिये निसरणी पर पाँव रखा बादशाह ने उसका हाथ पकड़ लिया और कड़े शब्दों में पूछा. "तुम कौन हो?" देवचन्द ने कहा, "मैं चोर या जार जो भी कहो सो हूँ।" बादशाह ने उसका हाथ पकड़े हुए अपने साथ ले लिया। आगे चलकर बादशाह ने देवचन्द से पूछा, "क्या तुम्हारा यहाँ कोई सगा-सम्बन्धी है, जो तुम्हें रात भर की जमानत देकर रख सके ?" देवचन्द ने कहा, "मेरे भाई, माँ. बाप सभी हैं।" और बादशाह को अपने घर ले आया । पुकारने पर द्वार खोल कर वाप नीचे आया। बादशाह ने पूछा “सेठ! तुम्हारा यह क्या लगता है ?" उसने कहा,
फिर बादशाह ने देवचन्द से पूछा, "और कोई जामिन हो तो बोलो!" देवचन्द उसे अपने भाई के यहाँ ले गया, उसने भी पिता की भाँति रूखा उत्तर दे दिया । बादशाह ने कहा, "और भी कोई हो तो बोलो।" देवचन्द ने कहा, "मेरा एक मित्र है. उसके यहाँ चलिये ।" कहते हुए उसको अपने मित्र के गृहद्वार पर लाया और पुकार कर उसे उठाया । मित्र के नीचे आकर उपस्थित होने पर बादशाह ने पूछा, "यह तुम्हारा कौन है ?" अमीचन्द ने कहा-"यह मेरा मित्र है. प्राण है. जीवन है और सब कुछ है ।" बादशाह ने कहा, "तुम इसे रात भर की जमानत देकर रखोगे ?" अमीचन्द ने .. कहा, "इसके लिये मेरा मस्तक हाजिर है ।" यह कह कर अमीचन्द देवचन्द को अपने घर में ले गया। बादशाह ने उसके घर पर पान का पीक डालकर चिन्ह कर दिया और एक किनारे खड़ा हो गया । थोड़ी देर बाद देवचन्द मित्र की आज्ञा लेकर घर से बाहर निकल पड़ा। बादशाह उसे निकलते देख त्वरित गति से वजीर की पुत्री के महल के नीचे जा पहुंचा और निसरणी पर चढ़कर महल की राँस के बरामदे में जाकर कोने में छिप गया । देवचन्द भी थोड़ी देर में निसरणी के द्वारा महल पर जा चढ़ा । उसने देखा, दपक का प्रकाश मन्द पड़ गया है और रूपसुन्दरी शोकपूर्ण मुद्रा में गलहत्था दिये बैठी है । उसके अश्र प्रवाह से सारी अंगिया भीग गई है । उसे दीर्घ निःश्वास लेते देखकर देवचन्द ने खंखार किया तो रूपसुन्दरी एकाएक हर्षोल्लासपूर्वक उठ खड़ी हुई और उसका आगत-स्वागत करने लगी। उसने उससे पूछा, "स्वामिन ! आज आपको इतनी देर कहाँ
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