________________
अश्वों का दान तथा सवा करोड़ द्रव्य व्यय करके पदोत्सव कराने का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त
और भी बहुत से काव्य एवं पट्टावलियों में बेगड़गच्छ के उत्कर्ष का विशद, उल्लेख पाया जाता है । ओसवालों में वेगड़ गोत्र भी इसी कारण प्रसिद्ध हुआ और अब भी विद्यमान है। कहा जाता है कि शाह खेमा देदराणी भी इसी समय हुआ और उसने सुलतान मुहम्मद बेगड़ा को प्रचुर द्रव्य देकर दुष्काल के एक वर्ष का व्यय वहन कर महाजनों का "शाह" विरुद कायम रखकर अक्षण्ण यश उपार्जन किया था। इसी बादशाह मुहम्मद बेगड़ा के समय में देवचन्द व अमीचन्द नाम के दो तरुण जैन मित्र हुए जिनकी कहानी-इतिवृत्त कच्छ के ज्ञानमण्डार के एक वृहत् कथा-कोश से यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैइसमें दो मित्रों की मित्रता निर्वाह के साथ-साथ देवचन्द
और वजीर पुत्री रूपसुन्दरी का उदात्त चरित अवश्य हो भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने वाला है।
कसौटी
[ ऐतिहासिक शील कथा ]
अहमदाबाद में सुलतान मुहम्मद बेगड़ा राज्य करता था । गुजरात में जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा-चढ़ा होने से वहाँ के शासक भी अपेक्षाकृत कोमल, उदार और सहिष्णु वृत्ति वाले हो गये थे । मुहम्मद बेगड़ा ने सामान्य उपाध्याय को आचार्य पद देकर गच्छाचार्य श्री जिनेश्वरसरि बनाया अर्थात् उसने स्वयं पद-स्थापना कराके अपने नाम से बेगड़ा विरूद्र दिया जिससे खरतरगच्छ की बेगड़ शाखा प्रसिद्ध हुईं । निम्नोक्त पद्य इस विषय का ज्ञातव्य देते हैं कि -
परतो पूरयो खान ने. अणहिलवाड़इ माहि हो। महाजन बंदि मुंकावीयो, मेल्यो संघ उछाहि हो | सणा।। राजनयर नइ पांगुरचा. प्रतिबध्या महमद हो। पद् ठवणो परगट कियो, दुख दुरजन गया रद्द हो ||स०७|| सींगड़ सींग बधारिया, अति ऊँचा असमान हो । धींगड़ भाई पांच सइ, घोड़ा दीधा दान हो ।स०||८|| सवा कोड़ि धन खरचीयो, हरख्यो महमद साहि हो। विरुद दियो वेगड़ तणो, प्रगट थयो जग मांहि हो ।स०||९||
[ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ] इस काव्य में सूरिजी द्वारा मुहम्मद शाह बेगड़ा को प्रतिबोध किये जाने व अपने भ्राता द्वारा पांच सौ
अहमदाबाद में मुहम्मद बेगड़ा बादशाह राज्य करता था। उसके नवलराय नामक एक वजीर था । वजीर नवलराय की पुत्री रूपसुन्दरी अत्यन्त सुन्दर व लावण्यवती थी, जो पाठशाला में पढ़ती थी। उसी नगर के अधिवासी दो व्यापारियों के पुत्र, देवचन्द व अमी. चन्द भी उसी पाठशाला में पढ़ते थे। प्रतिदिन के परिचय प्रसंग से कितने ही अरसे वाद वजीर की पुत्री रूपसुन्दरो और देवचन्द में परस्पर दृढ़ प्रोति हो गई। उन दोनों में परस्पर इतना प्रेम था कि एक दूसरे को विना देखे घड़ी भर भी रहना कठिन था। दोनों का अध्ययन शेष होने पर जब पाठशाला छोड़ने का समय आया तो रूपसुन्दरी ने देवचन्द से कहा, "अपनी पढ़ाई तो शेष हो गई, हम अब कैसे मिल सकेंगे?" देवचन्द ने रूपसुन्दरी से कहा, "इसकी तनिक भी चिन्ता मत करो, मैं प्रतिदिन रात्रि के समय तुम्हारे महल में आया करूंगा।" रूपसुन्दरी संतुष्ट होकर अपने घर आई और
१६८]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org