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________________ हो गये हैं । हमारा जो भी अपराध हुआ हो, क्षमा करें ।' दास-दासी यह सुनकर रो पड़े और कहने लगे'हमारे जीवन के आप ही आधार हैं, हमें निराधार करके क्यों जा रहे हैं ? कृपालु ! कृपा करो । किन्तु उनका मन अब मोह के प्रवाह में पुनः प्रवाहित होने वाला नहीं था। उन्होंने मुनिराज की ओर मुंह करके अपने हाथ से ही अपना फ्रेश लुंचन कर लिया। मुनिराज ने उन्हें यावज्जीव का व्रत उच्चारण कराया—साधु जीवन की दीक्षा दी। जब उनके माता-पिताने यह बात सुनी तो वे तथा अन्य स्नेही स्वजन परिजन भी वहां आ पहुँचे । पद्मदेवके माता-पिता जोर-जोर से रोने लगे । ऋषभसेन सेठ धार्मिक वृत्ति वाले होने से अपने को संयमित रख सके थे। सभी ऐसा कहने लगे कि अभी तुमलोगों ने अल्पावस्था में यह क्या किया ? किन्तु दृढ़ मन वाले दोनों ने उत्तर दिया कि Jain Education International 'अब सांसारिक सुखों से हमारा मन विरक्त हो गया है। भगवान महावीर के बतलाए हुए पवित्र संयमी जीवन मार्ग पर चलकर अपना आत्म-कल्याण करना चाहते हैं । आप सब का कल्याण हो ।' तरंगवती महासती चंदनवाला की ही प्रशिष्या थी। संयम और तपश्चर्या में मस्त होकर उसने अपनी आत्मा को निर्मल बनाया और ग्रामानुग्राम विचरणकर भगवान महावीर का अहिंसा धर्म सन्देश सर्वत्र प्रचारित किया । मूल लेखक शतावधानी पं० धीरज लाल शाह गुजराती से अनुदित । For Private & Personal Use Only [ १६० www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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