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________________ 'उस स्त्री ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा हम किसी समय गंगातट पर चक्रवाक पक्षी थे और आनन्द से जीवन बिताते थे । एक बार एक शिकारी ने आकर हाथी पर शरसंधान किया पर वह मेरे पति को लगा जिससे वे मृत्यु प्राप्त हुए, मैं भी उनके साथ जलकर मर गई। वे कौशाम्बी के एक सेठ के यहाँ पुत्र रूप में और मैं नगरसेठ के यहाँ पुत्री रूप में जन्मी। चित्रों के माध्यम से हमने एक दूसरे को पहचान निकाला। इन्होंने मेरा मांगा भेजा पर मेरे पिता द्वारा ठुकरा देने पर एक दासी को मैं इनके पास भेजी और अंधेरी रात्रि में मैं इनके पास पहुंची। माता-पिता के भय से हम एक नौका में बैठकर निकल पड़े और गंगा नदी के तट पर इन लुटेरों के हाथ पकड़े गए। 'यह वात उसने खूब रो-रोकर सुनाई थी। जिसे सुनकर मैं तो बेहोश हो गया और मुझे अपने पूर्व भव की बात स्मरण हो आई । मैं सारी वस्तु स्थिति समझ गया जिससे मेरा हृदय द्रवित हो गया । जिन्हें एक समय निर्दयता से मार डाला था उन्हें अब जीवितव्य दान देकर बदला चुका देने का निश्चय किया। पुरुष को बन्धन मुक्त कर पिछली रात्रि में गुप्त मार्ग द्वारा जंगल से बाहर छोड़ आया। अब मैं अपने गिरोह का अपराधी हो गया था अतः वापस वहां न लौटकर मैं उत्तर दिशा की ओर चला गया । मेरा मन अब सांसारिक भोग और उसके हेतु पाप कार्य करने से विरक्त हो गया। अतः मैंने संन्यास धारण कर लिया। दर्शनार्थ एकत्र हुए हैं। यह सुन कर मैं भी वहां भक्ति भाव से नतमस्तक हो गया। उस समय वहां निकट ही एक महात्मा ध्यानस्थ बैठे थे, मैंने उनकी चरण वन्दना कर करबद्ध प्रार्थना की-भगवन् ! मैं इस संसार समुद्र को पार करने के लिए आपका शिष्य होना चाहता हूँ, । कृपा कर मुझे अपना शिष्य बनाइये ! उस महात्मा ने कहा-आजीवन साधु धर्म पालन करना कठिन है, अतः अच्छी तरह विचार करो। किन्तु मैंने आग्रहपूर्वक उनसे अनुरोध किया तो उन्होंने मुझे दीक्षा दे दी। मैं ने धीरेधीरे साधु-जीवन के समस्त नियम और आचारांग आदि सूत्र का अभ्यास कर गया। बारह वर्ष पर्यन्त इस प्रकार स्वाध्याय में रहने से मुझे जगत के स्वरूप का ज्ञान हो गया और अब मैं आत्म-ध्यान करता हुआ लोगों को धर्मोपदेश देता विचरण करता हूँ।' तरंगवती और पद्गमदेव को यह बात सुनकर स्वयं अनुभव किया हुआ दुःख ताजा हो गया । वे विचारने लगे कि ये महापुरुष हमारे लिये विष और अमृत जैसे प्रमाणित हुए थे किन्तु आज इन्होंने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त की है और हम अभी तक वैसा नहीं कर सके, अतः अब इस भोग-विलास से दूर होना चाहिए। उन्होंने मुनिराज को मस्तक नमाकर कहा- 'जो चक्रवाक युगल मानव रूप में आपके हाथ से वचा, वे हम हैं। आपने हमें दुःख से उबारा वैसे ही जन्म-मरण से भरे हुए संसार से भी उबारें! हमें साधु जीवन की पवित्र दीक्षा दें।' मुनिवर ने कहा-'महानुभावों ! आत्मबल वालों के लिए कुछ भी अशक्य नहीं हैं। जहां तक तुम्हारी इन्द्रियाँ काम देती हैं वहां तक त्याग-तपश्चर्या का सम्यक आराधन कर अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाओ।' यह सुनकर उसी क्षण पद्मदेव एवं तरंगवती ने अपना शृंगार उतार डाला और दास-दासी को सौंप कर कहा-'ये आभूषण हमारे माता-पिता को संभलाकर देते हुए कह देना कि वे जन्म-मरण से विरक्त होकर पवित्रता के पथ पर आरूढ़ एक बार मैं भ्रमण करता हुआ पुरिमताल नगर जा पहुँचा। वहां एक अत्यन्त सुन्दर वटवृक्ष के पास लोगों की भीड़ देखकर मैंने पूछा कि यहां इतने सारे लोग क्यों इकट्ठे हुए हैं। लोगों ने मुझे परदेशी जानकर बतलाया कि प्राचीनकाल में श्री ऋषभदेव नामक एक महापुरुष हुए थे जिन्हें इस वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। जिससे यह पवित्र तीर्थ कहलाता है । सभी लोग इसके १५६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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