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नष्ट कर देता है । मैं शनैः शनैः चोरी करने लगा और लूट खसोट से भी धन प्राप्त करने लगा। मेरे इस नोच कार्य से मेरे माता-पिता का भी मस्तक झुक गया । एक रात्रि में चोरी करने निकला किन्तु लोगों को पता लग गया। मुझे पकड़ने लगे तो मैं निकटवर्ती जंगल में प्राण वचाकर भाग गया । विन्ध्याचल का यह जंगल शिकार से भरपूर था । उसमें लुटेरे भी बहुत से रहते थे। मैं चलते-चलते एक गुफा के सन्मुख आ पहुँचा। वहाँ सशस्त्र पहरा था । यह सिंह-गुफा नामक डाकुओं की गुफा थी। वे व्यापारी एवं वनजारों को लूट कर आनन्द करते थे । जहाँ तक होता वे ब्राह्मण, श्रमण, स्त्री, रोगी
और बालक को नहीं सताते थे । मै इस गिरोह में मिलकर डाकू बन गया ।।
भी नहीं मारना । कोई भी नर-मादा जोड़ा क्रीड़ा करता हो उसे नहीं मारना । जो इन नियमों को तोड़ता है उसका नाश हो जाता है, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना।
'मेरा विवाह उसी जंगल में निवास करने वाले एक पारधी की रूपवती कन्या के साथ हुआ था जिससे मेरा संसार वहुत सुखी था ।
'एकवार मैं धनुष-वाण लेकर हाथी की खोज में निकला। बहुत भटकने पर भी एक भी हाथी हमारे जंगल में दृष्टिगोचर नहीं हुआ जिससे मैं उसकी खोज में ठेठ गंगातट तक जा पहुंचा। वहाँ एक हाथी को मैंने गंगातट पर जलपान करने आया हुआ देखा। मैंने तर फैंका पर वह निशाना चूक कर कुछ ऊँचा चला गया और वृक्ष पर बैठे चक्रवाक युगल से चक्रवाक को जा लगा । चक्रवाक तुरंत घायल होकर भूमि पर आ गिरा और चक्रवाकी भयंकर चीत्कार करती हुई हवा में उड़ने लगी।
'जब मैंने निकट आकर देखा तो मुझे अपार दुःख हुआ। अज्ञानता वश मेरा नियम भंग हो गया। फिर मैंने वन में से काष्ठ एकत्र कर उसका अग्निसंस्कार किया। अभी मैं थोड़ी ही दूर गया था कि चक्रवाकीभी उस चिता में आकर दग्ध हो गई। यह देखकर मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ। हे जीव ! जो कार्य कभी नहीं किया और आज इस प्रकार कुज-धर्म का लोप किया और इन वेचारे पक्षियों के जोड़े को नष्ट कर दिया। यह पश्चात्ताप करते-करते मुझे अपने पापी जीवन से घृणा हो गयी और मैंने भी उसी चिता में अपने को अग्निशरण कर दिया। अपनी इस जीवन-शुद्धि से मै नरक में न जाकर काशी में एक सेठ के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । मेरा नाम रूद्रयशस् रखा गया । मैं समस्त कलाओं का अभ्यास कर निष्णात हुआ पर मुझे बाल्यकाल से ही जुए का दुव्र्यसन लग गया। जुआ एक ऐसा भयंकर दुर्गण है जो समस्त सद्गुणों को
'हमारा सरदार भाला चलाने में बड़ा निष्णात था। वह मल्लप्रिय नाम से प्रसिद्ध था। विशेषतः धनवानों को वह बहुत सताता। मैंने उसके तत्वावधान में अनेक डाकों में भाग लिया था। मेरे शौर्य के कारण सारी मंडली में मेरा बड़ा नाम था। और मैं सरदार का विश्वासी अंगरक्षक बन गया ।
एक बार हमारा गिरोह लूट करने के लिए निकला और वह एक तरुण जोड़ी को घेर कर ले आया । उनका लावण्य देख कर कालीमाता की प्रार्थना करने लगे और सरदार ने उन्हें देखकर कालीमाता को भोग चढ़ाने का निर्णय किया। उसने मुझे एकान्त में बुलाकर कहा कि इस नवमी के दिन इस जोड़ी को कालीमाता के भोग चढ़ाना है अतः तुम बराबर इन पर नजर रखना । मैं उस जोड़े को एक घर में ले गया, वहाँ पुरुष को स्तंभ से कस कर बांध दिया । यह देखकर उसकी स्त्री करुण चीत्कार कर रुदन करने लगी। जिससे अन्य कैदी स्त्रियों को भी दया आ गई और वे झुण्ड की झुण्ड मिलकर उससे पूछने लगीं कि तुम कहाँ से आये और इन लुटेरों के हाथ कैसे पड़ गए।
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