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आना होता । वे कभी एक दूसरे से अलग नहीं होते। उनके स्नेहपूर्ण संसार को देखकर चाहे जिसको भी सहज मधुर ईर्षा आ जाती ।
पवित्र वटवृक्ष की प्रदक्षिणा देकर दर्शन वन्दन किया। फिर आगे चलते हुए शाखांजना नगर में आये, यहाँ इन लोगों का बड़ा सत्कार हुआ। प्रातःकाल वहाँ से रवाना होकर मध्याह्न में कौशाम्बी के निकट आ पहुंचे। एक विशाल वटवृक्ष के नीचे दोनों के पारिवारिक जन और मित्र लग आकर खड़े थे, सब लोगों ने इनका स्वागत किया । तरंगवती यहाँ से घोड़े पर बैठ गई । उसके पीहरू सारसिका आदि सखियाँ व पीछे-पीछे सवार चले । पद्मदेव भी अपने अश्वारोही मित्रों के साथ दूसरी ओर चला । नगर में उनके स्वागतार्थ तोरण बंधे थे. ध्वजापताकाएं लगी थी: देखने के लिये जनता एकत्रित थी।
नगर प्रवेश के समय कोई अंगुली निर्देश से बताने लगे कि वह पूर्व भव का चक्रवाक है और वह नगरसेठ के यहाँ अवतरित चक्रवाकी है । अहा ! क्या दोनों का स्वरूप है, दोनों की एक सरीखी जोड़ी है। इस प्रकार नागरिक जनों का वार्तालाप सुनते हुए वे पद्मदेव के घर आये। वहाँ अभिनन्दन सत्कार करने के हेतु आत्मीय, सगे-सम्बन्धी एकत्र हुए थे । दोनों ने बड़ों के चरणों में नमस्कार किया । उन्होंने दोनों को एक आसन पर बैठाकर आमूल-चूल से वृतान्त पूछा । पद्मदेव ने पूर्व-भव की सारी बात कही। यह सुनकर नगरसेठ ने कहा-'तुमने पहले ही यह सब क्यों नहीं कहा ? तुम्हें संकट भी नहीं पड़ता और पश्चात्ताप भी नहीं होता । यह बात ज्ञात होने पर कोई कभी भी अस्वीकार कर सकता है ?
एक वार वसन्त ऋतु आने पर दोनों क्रीड़ा करने के लिये वन में गए । वहाँ एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बैठे एक महात्मा को देखा । तरंगवती और पद मदेव उन्हें नमस्कार करके सन्मुख बैठे। महात्मा ने धर्मलाभ दिया और बड़ी खूबी के साथ धर्म सिद्धान्तों का उपदेश दिया जिसे सुनकर दोनों को बड़ा आनन्द हुआ । पद्मदेव ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर कहा-'मुनिराज । आपने ऐसे उत्तम जीवन की साधना कैसे स्वीकार की कृपा कर बतलायें और यह जानने की उत्कण्ठा के लिये क्षमा करें।
महात्मा ने कहा-'चम्पानगरी की राज्य सीमा पर एक बीहड़ जंगल था. जहाँ भैंसे, साँप, चील तथा जंगली हाथी भी बहुत बड़ी संख्या में रहते थे। वहाँ शिकारी भी बहुत रहते थे जो दिन भर जंगल में शिकार कर अपनी उदर-पूर्ति करते थे । मैं भी अपने पूर्व-भव में उसी जंगल में एक पारधी था। मुझे हाथी का शिकार करने में बड़ा आनन्द आता । दिनभर मुझे जंगल में घमना भी प्रिय लगता । वाण-विद्या में मैं बेजोड़ कहलाता था जिससे मुझे लोग 'सिद्धवाण' नाम से पहचानते थे । मेरे माता-पिता भी बड़े होशियार पारधी थे जिससे वे व्याधराज नाम से पहचाने जाते। मेरी माता का नाम वनसुन्दरी था ।
एक बार मैंने हाथी पर तीर फेंका तो मेरे पिता ने कहा-बेटा ! अपने कुल का जो आचार है, वह सुनो! जो हाथी दल का नायक हो और प्रजा उत्पन्न कर सकने वाला हो, उसे कभी मत मारना । जो बच्चे को लेकर जाती हो उस हथिनी को भी नहीं मारना । उसी प्रकार जो हाथी का बच्चा स्तनपान करता हो. उसे भी नहीं मारना । हाथी-हथिनी क्रीड़ा करते हों उन्हें
फिर सभी अपने-अपने घर गए और दोनों के विवाहकी तैयारियाँ हुई । बड़े ही समारोह पूर्वक दोनों का विधिवत् विवाह सम्पन्न हुआ, कौशाम्बी में ऐसा विवाहोत्सव कभी नहीं हुआ था ।
दोनों अत्यन्त स्नेहपूर्वक रहने लगे। साथ ही खानापीना, साथ ही नहाना, साथ ही घमना. साथ ही जाना
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