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कठिन हो गया । इसलिये पदमदेव ने उसे अपनी पीठ पर उठा लिया । यद्यपि तरंगवती ने बहुत ना कही थी । थोड़ी देर में वे एक गाँव में पहुँचे । अव भय तो कोई था नहीं अतः तरंगवती को थकावट । और क्षुधा का कष्ट हुआ । उसने कहा-'स्वामिन् ! अब असह्य भूख लगी है, कहीं से कुछ प्राप्त कर लावें ।' पदमदेव के कहा-'इस जीभ ने कभी दुःख की पुकार नहीं की तो याचना तो करता ही क्या ? फिर भी तुम्हारे प्रेम के कारण वह भी करूंगा ।'
में से थोड़े सिपाहियों को लेकर आपकी खोज के लिए निकला था। आपके पिताजी और नगरसेठ ने अपने हस्ताक्षरों से पत्र लिखकर मुझे दिये हैं. वे ये रहे। पद्मदेव ने उन पत्रों को पढ़ा। उनमें किञ्चित भी क्रोध की वात नहीं थी। प्रत्युत स्नेहपूर्ण शब्दों से भरे हुये थे।
तरंगवती सीताजी के मन्दिर में बैठ गई और पद्मदेव गाँव में गया। वहाँ कितने ही सिपाही लोगों के साथ एक अश्वारोही सामने मिला। वह पद्मदेव को देखते ही नीचे उतर पड़ा और प्रणाम कर बोला'सेठजी? मैंने आपके यहाँ बहुत दिन नौकरी की है।' पद्मदेव भी उसे पहचान गया और परस्पर मिलकर पूछा-'तुम यहाँ कहाँ ?' उसने उत्तर दिया-'प्रातः होते ही नगरसेठ के घर में पता चल गया कि पुत्री नहीं दिखाई देती। अतः खोज की गई। सारसिका ने पूर्व भव से लेकर तुम दोनों के पलायन कर जाने के विचार पर्यन्त सारी बात कही। तरंगवती की माता तो उसी समय से रोने लगी। नगरसेठ आपके पिताजो के पास आये। उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा-मेरे कठोर शब्दों से आपको जो कष्ट हुआ. उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपके पुत्र की खोज करावें, उसे किञ्चित भी भय का कारण नहीं। वह बिचारा परदेश में कहाँ भटकेगा? यह कहकर उन्होंने सारसिका की बतलाई हुई सारी बातों से अवगत कराया। इस वृतान्त से सब के हृदय भर आये। प्रातःकाल होते ही सारे नगर में बात फैल गई कि नगरसेठ की पुत्री व पद्मदेव को पूर्व भव याद आया है और वे दोनों निकल गए हैं। उस समय आपके पिता और नगरसेठ ने दोनों की खोज के लिए बहुत से व्यक्ति दौड़ाए। मैं भी उन्हीं
पदादेव तरंगवती के पास आया और सारा वृत्तान्त कहा । अश्वारोही ने पद्मदेव के हाथ सूजे हुए देख उसका कारण पूछा तो उसने सारी आत्मकथा कह सुनायी । फिर उस गांव में एक ब्राह्मण के घर गए जहाँ पद्मदेव और तरंगवती ने अच्छी प्रकार से भोजन किया। फिर सभी घर की ओर जाने के लिए निकल पड़े ।
दोनों के लिये घोड़े तैयार थे, सवार हो गए। पहले प्रणाशक नगर की ओर चले। यह नगर तमसा और गंगाजी के सुन्दर संगम पर बसा हुआ था । वे एक परिचित स्नेही के यहाँ उतरे, उसने दोनों को गरम जल से स्नान करवाया, तेल अभ्यंगादि कराये और अच्छी तरह भोजन कराया । फिर आराम पूर्वक सोकर थकावट उतारी। अश्वारोही ने कौशाम्बी समाचार भेज दिया कि दोनों मिल गये हैं और थोड़े समय में पहुँचेंगे। यहाँ आवश्यक आराम करने के पश्चात् उन्होंने चलने की तैयारी की। तरंगवती रथ में बैठी. पद्मदेव उसके पीछे अश्वारूढ़ होकर चला । दोनों ओर खोज के लिए आये हुए सिपाही लोग चलने लगे। गाँव में से यह मण्डली निकली तो सब लोग ठाठ देखकर चकित हो गए।
गांव से बाहर आकर पद्मदेव भी घोड़े से उतर कर रथ में बैठ गया। वे लोग धान के हरे-भरे खेत. मार्ग के विश्राम-चौतरे और पानी की प्रपाएँ देखते हुए वासालिक गाँव आये। प्रभु महावीर केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व छद्रमस्थावस्था में एक वटवृक्ष के नीचे रहे थे, इसीसे इसका नाम वासालिक पड़ा था। इन दोनों ने इस
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