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________________ को क्रोध आया. वह जोर लगाकर बंधन-मुक्त हो उस डाकू के साथ लड़ने का प्रयास करने लगा।' पर व्यर्थ ! इतने दृढ़ बन्धन में वह वद्ध था कि कुछ न कर सका। डाकू ने और दृढ़ता से उसे बाँध दिया और फिर मूढ़े पर बैठकर कच्चा मांस खाकर मदिरा पान करने लगा। तरंगवती ने उस डाकू से कहा-'ये कौशाम्बी के एक व्यापारी के लाडले पुत्र हैं और मैं नगर सेठ की पुत्री हूँ । यदि हमें छोड़ दोगे तो जितना कहो हीरा, मोती और सोना देंगे । तुमलोगों में से एक व्यक्ति को हमारी चिट्ठी लेकर भेजो । धन मिलने से हमें छोड़ देना । उन्होंने मन ही मन इष्टदेव से प्रार्थना की और उपवास किया। वे अपना सारा समय धर्म ध्यान में ही विताने लगे । अर्द्ध रात्रि में डाकुओं की गुफा कोलाहलपूर्ण हो गई थी । कोई नाचने-कूदने लगा, कोई गाने लगा, तो कोई हो-हल्ला करने लगा। जब सब शान्त हो . गए तो वह पहरेदार आया और पद्मदेव को बन्धनमुक्त करते हुए कहा-मेरे पीछे-पीछे दोनों चले आओ। वह उन्हें अज्ञात जंगली मार्ग से लेकर चला । उस समय जंगल में कहीं दूर और कहीं निकट जंगली जानवरों की आवाज सुनायी पड़ती थी। कहीं-कहीं तो सूखे पत्तों पर उनके पदचाप की खड़खड़ाहट से नीड़ में सोए पक्षी जग पड़ते थे । इस प्रकार जब वें जंगल को उल्लंघन कर गये तो उस डाकू ने कहा-'अब अप लोग निर्भय हैं । निकटी गाँव में चले जावें । मैं भी अपने रास्ते चला जाऊँगा । अपने सरदार की आज्ञा से आपको बंधन में बाँधना पड़ा, इसके लिए क्षमा करें। डाकू ने कहा-'हमारे सरदार ने काली माता के आगे तुम्हारा बलिदान देना निश्चित किया है। उनकी कृपा से तो हमारे सारे कार्य सफल होते हैं । उन्हें मान्यता किया हुआ भोग न दें तो हमारा सर्वनाश हो जाय। स्वयं को ऐसे स्थल पर मरना पड़ेगा और स्वामी निर्दय बंधन में पड़े हैं-देखकर तरंगवती करुण क्रदन करने लगी। पद्मदेव ने तरंगवती को धैर्य बंधाते हुए कहा '-'मरना है तो शाँति से मरना है. शोक करने से क्या हाथ आयेगा?' इन शब्दों से वह थोड़ी शान्त हुई पर उसका क्रंदन हरेक के हृदय को द्रवित करने वाला था। तत्र स्थित कैदी स्त्रियाँ भी यह देख रोने लगी और पूछने लगी--'वहिन ! तुम किस प्रकार इनके द्वारा पकड़ी गई ?' तरंगवती ने अपनी कथा संक्षेप से कह सुनाई। यह सुनते हुए उस डाकू का हृदय भी इतना दयाद्र हुआकि वह बेहोश हो गया। थोड़ी देर में सचेत होकर उसने पद्मदेव के बन्धन ढीले कर दिये और कहा–'तुम डरो मत, मैं तुम्हें मौत से बचा लूंगा।' पद्मदेव ने कहा---'तुम्हारा जितना उपकार माने थोडा है। अपने सरदार की आज्ञा होते हुए भी अपने प्राणों को संकट में डालकर हमें बचाया, इसका बदला कब चुकाऊँगा ? मैं कौशाम्बी के सेठ धनदेव का पुत्र हूँ। तुम मेरे साथ चलो, तुम जो चाहोगे सो दूंगा। उस डाकू ने कहा-'समय आने पर देखंगा।' पद्मदेव ने उसे कसम दिलाते हुए कहा-कौशाम्बी आओ तब अवश्य मेरे यहां आना। तुम्हारा बदला तो कभी नहीं चुका सकता।' डाकू ने कहा-'आपको सन्तोष हुआ, यही पर्याप्त है. अब अपने आप चले जाइये ।' कहकर वह अपना मार्ग पकड़ लिया । यह सुनकर दोनों को आनन्द हुआ पर अभी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ कि यहाँ से मुक्त हो जायेंगे। तरंगवती और पद्मदेव दोनों बिना रास्ते के मैदान में जल्दी-जल्दी चलने लगे । तरंगवती कभी इस प्रकार चली नहीं थी। अनभ्यास के कारण उसके लिये चलना १६२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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