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________________ युगल तैरने लगे। उषाकाल हुआ, पशु-पक्षी जग कर कलरव करने लगे । पूर्व दिशा में सूर्य किरणों का प्रकाश सर्वत्र फैला । पद्मदेव ने कहा-'प्रिये ! अव दांतौन करने का समय हुआ ।' सामने नदी तट की बालुका पर उतरें । तरंगवती की स्वीकृति से नौका को किनारे लगाकर उतरे। अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि झाड़ियों में से लुटेरे-डाकू निकल आये जिन्हें देखते ही तरंगवती चीख पड़ी और पद्मदेव से चिपटते हुए बोली-'अब क्या करेंगे।' पद्मदेव ने कहा-'तुमने अभी तक मेरा लाठी चलाना नहीं देखा है। छोड़ो मुझे-मैं उनकी खवर लेता हूँ। प्राण रहते मैं तुम्हारी रक्षा करूंगाचिन्ता मत करो।' तरंगवती ने कहा-'नाथ ! मुझे अकेली छोड़कर उनसे न भिड़ें । आपका डाकूओं के हाथ से पकड़ा जाना मैं नहीं देख सकेंगी। फिर भी आप जाते हो तो मैं अपना प्राण त्याग करती हूँ, तब तक ठहरें।' यहाँ उन्होंने इन दोनों को बंधन से बांधा और अन्दर ले गये। ध्वजा-पताका से भीतरी भाग सजाया हुआ था। यह सव देखकर पद्मदेव और तरंगवती समझ गये कि यह तो काली जी का मन्दिर है । डाकुओं का दूसरा गिरोह भी एक बड़ा डाका डालकर आया था। उन्होंने परस्पर नमस्कार किया और रति-कामदेव जैसे जोड़े को देखने लगे । उन्होंने इन्हें देखकर क्या-क्या टीकाटिप्पणी की। बस्ती में पता लगने पर छोटे-बड़े सभी इन दोनों को देखने आये। फिर उन्हें वहाँ से भी आगे ले गये जहाँ कितने ही कैदियों को भर रखा . था। एक ओर लुटेरों का गान-तान और दूसरी ओर कैदियों के भयंकर चीत्कार को देखकर वह स्थान स्वर्ग और नरक का मिश्रित रूप प्रतीत होता था । कैदी स्त्री-पुरुष तरंगवती और पद्मदेव को देखकर मोह और दया से न जाने क्या क्या बोलने लगे । इतने में कांटों की वाड़ वाला सरदार का घर आया । उसमें घास का एक झोंपड़ा बना हुआ था जिसमें दोनों को ले गये । सरदार का तगड़ा शरीर, उसके धारण किये हथियार और परिपार्श्व में बैठे हुए उसके साथियों से वह स्थान यमदूत के निवास जैसा लगता था। इन दोनों कैदियों ने उसे नमस्कार किया। उसने तीक्ष्ण दृष्टि से इन्हें नख से शिख पर्यन्त देख लिया और एक साथी के कान में कहा-'माता के शरद ऋतु के भोग देने के लिये यह जोड़ी उपयुक्त है । अतः इन्हें कैद में डाल दो और सख्त पहरा रखो। नवमी की रात्रि में ले आना।' इतने में लुटेरे आ पहुँचे । तरंगवती ने उनके पैरों में पड़कर आजीजो करते हुए कहा-'तुम्हें जो कुछ चाहिये ले लो पर मेरे पति को कष्ट न दो।' उन्होंने नोका पर अधिकार करके उसमें रखा हुआ सारा धन ले लिया और तरंगवतो व पद्नदेव के सारे आभूषण उतार लिये। ओह ! कितने बड़े परिश्रम से दोनों मिले, तो अब उनका सुखी मिलन स्वप्नवत हो गया। लुटेरों ने उन्हें कैदी बनाया और जंगल में ले चले । विंध्याचल पहाड़ के दक्षिण की ओर वे जा रहे थे। बहुत देर चलने के वाद वे एक सुन्दर पहाड़ी की खोह में प्रविष्ट हुए। वहाँ एक गुफा आई । उसके द्वार पर कितने ही मनुष्य माला और तलवार धारण किये सतर्क पहरा दे रहे थे। अन्दर से ढोलक तथा गायन व नृत्य की ध्वनि सुनाई दे रही थी। उसकी प्रतिध्वनि सारी गुफा में गूंज रही थी। यह आज्ञा पाकर एक डाकू खड़ा हुआ और दोनों को एक घर में ले गया । यहाँ पहरेदारी ठीक लगेगी अतः पद्मदेव को एकाएक स्तम्भ से बाँध दिया । तरंगवती से यह नहीं देखा गया तो उसने कल्पान्त करते हुए कहा-'भाई! मुझे भी इसी के साथ हो बाँध दो।' कहकर पद्मदेव के पास आ गई । डाकू ने यह देखकर उसे धक्का मार कर किनारे हटा दिया। पद्मदेव १६१] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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