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है । फिर वह अपने साथ रहने से बाधा-सी रहेगी अतः अभी चले चलें ।'
तरंगवती। तुम यह साहस कैसे कर सकी ? तुम्हारे पिता को सहमत कर सक. वहाँ तक प्रतीक्षा करने को मैंने तुम्हें कहा था । वे राज्य के कृपापात्र हैं, पता लगने पर वे हर उपाय से मेरे परिवार का बिगाड़ कर डालेंगे अतः तुम्हारी अनुपस्थिति ज्ञात होने से पहले ही तुम घर लौट जाओ। क्योंकि बात तो हवा में उड़कर फैल जाती है ।'
इसी समय नीचे के राजमार्ग से कोई व्यक्ति बोलता जा रहा था-'अपने आप चलकर आई हुई प्रिया, यौवन, अर्थ, राज्य, लक्ष्मी, वर्षा, समय, चांदनी और चतुर स्नेहियों के आनन्द का जो उपयोग नहीं कर सकता वह घर पर आई हुई का मूल्यांकन नहीं जानता। जीवनाधार अपनी प्रिया को प्राप्त कर जो छोड़ देता है वह दुखी होता है।'
इन वचनों से पद्मदेव के विचारों ने पलटा खाया और वह बोला-'यदि हम परदेश चले जाए तो विघ्न और आशंकाओं से छुटकारा हो सकता है ।
तरंगवती और पद्मदेव चल पड़े । नगर के द्वार दिनरात खुले रहते थे अतः वे सीधे यमुनाजी के किनारे जा पहुँचे । पद, मदेव ने यात्राए खूब की थी अतः वह नौका चलाना भी अच्छी तरह जानता था। उसने पड़ी हुई नौका का लंगर उठाया और उसमें बैठकर वे तुरंत रवाना हो गये । इसी समय दाहिनी ओर शृगाल का शब्द सुना तो पद्मदेव ने कहा-'प्रिये! उत्तम शकुन हो जाए तव तक नौका रोकें ।' उसने नौका को रोका भी. पर नदी के वेग में अटका रखना कठिन था। अतः अनिच्छा पूर्वक भी उन्हें चल देना पड़ा । नदी के प्रवाह में नौका वेग से चलने लगी । दोनों किनारों पर घना जंगल था जिसमें से जंगली जानवरों की आवाजें आ रही थीं । थोड़ी-थोड़ी दूर पर निद्रामग्न गाँव भी दिखायी पड़ते थे। पद्मदेव ने पतवार चलाते हुए कहा-'प्रिये ! कितने चिर-वियोग के पश्चात् हम मिले हैं। अहा, तुम अपने मिलन की इच्छा नहीं करती और चित्रांकन न करती तो क्या हम मिल सकते? तुमने मेरे जीवन को खूब सुखमय बना दिया है।
तरंगवती ने रोते-रोते कठिनता से कहा-'प्रियतम ! .आपकी इच्छानुसार मैं करने को प्रस्तुत हँ पर अब मेरेसे
घर वापस नहीं जाया जाएगा। फिर कितने ही विचार विमर्श के अन्त में दोनों ने पलायन कर परदेश जाने का निर्णय किया । पद्गमदेव ने कहा-'तब मैं यात्रा की तैयारी कर लेता हूँ।' तरंगवती ने अपने आभूषणादि सामान लाने के लिए सारसिका को अपने महल में भेज दिया।
तरंगवती ने लज्जा से नीचे देखते हुए कहा-'नाथ ! आप ही मेरे जीवन-धन हैं, अव मुझे कभी भी दूर न करें, आपके विना मैं जीवित नहीं रह सकंगो।'
पद्मदेव ने कहा-'तुम ऐसी कोई चिन्ता न करो, हम अब काकंदी के निकट आ पहुंचे हैं । वो दूर नगर के सफेद महल दिखाई दे रहे हैं।' फिर आलिंगन कर उसके साथ गन्धर्व विवाह कर लिया। यह प्रेम-विवाह सर्वदा स्थायी रहे. इसके लिये इष्ट देवों से प्रार्थना की।
इधर पदमदेव तैयार होकर बोला-'अब अपने को किश्चित् भी विलम्ब नहीं करना है। अतः तुम्हारे पिता को ज्ञात होने से पूर्व ही हमें चल देना चाहिए।' तरंगवती ने कहा-'पर अभी तो सारसिका नहीं आई, वह आवे तब चलें ।' पद्मदेव ने कहा-'गुप्त बात में दासी को मिलाना ठीक नहीं इससे विघ्न उपस्थित हो सकता
अब वे गंगा के संगम पर पहुंचे। नौका गंगाजी पर तैरने लगी । पूर्वभव में जैसे इस नदी के पास चक्रवाक युगल तैरते थे उसी प्रकार इस भव में मानव
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