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यह स्नेही जीवन जब तक सुखी न हो तब तक सारी बात गुप्त रखना ।
यह पत्र पढ़कर पद्मदेव की आँखों में अश्रुधारा प्रवाहित हुई, देह कांपने लगा। पूर्व भव का स्नेह उसके हृदय में इतना ही ताजा हो गया था कि उसने कहामेरी दशा वर्णन करने की आवश्यकता नहीं । कल वाले चित्र वास्तव में मेरी पूर्व भव की कथा से सम्बन्धित थे। उन्हें देखते ही मैं मूच्छित हो गया था। वहाँ से आते ही लगभग सारी रात उसी स्थिति में बिताई। प्रातःकाल मेरे मित्रों ने मेरे पिताजी से कहा कि आप तरंगवती के लिये माँग भेजें । उन्होंने यह सुनकर कहातुम भले अन्य कन्या के लिये कहो किन्तु उसका नाम छोड़ो ! वह अभिपानो नगरसेठ नहीं मानेगा। फिर भी जब मेरे मित्रों के आग्रह से वे स्वयं वहाँ गए किन्तु उत्तर वही मिला जो पहले से सोचा हुआ था तो मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया और इतने में ही तुम आ गई। तुम उसके पास मेरा पत्र ले जाकर धैर्य बंधाओ कि तुम्हें वह चक्रवाकी की भाँति ही चाहता है और तुम्हारे पिता को जब तक युक्तिपूर्वक मना लिया जाय तब तक धैर्य धारण करो।
कर सारसिका से कहा । सारसिका ने कहा-'बहिन! यह तो अति- साहस होता है, इससे तुम्हारे कुल की मर्यादा भंग होगी । समय आने पर तुम्हारे पिता तुम्हारे मन की इच्छा समझ कर स्वयं उसके साथ तुम्हारा 'विवाह करने को राजी हो जायेंगे। तुम उताबली मत बनो ।'
तरंगवती ने कहा-'तुम इतनी लंबी गणना कब सीख गई? मनुष्य को सफलता प्राप्ति के लिये सभी प्रकार के जोखिम उठाना सीखना चाहिए। यदि तुम मुझे वहाँ नहीं ले जाती हो तो मैं एक घड़ी भी निकाल नहीं सकूँगी, मेरे जोवितव्य की आशा न रखना।
यह सुनकर सारसिका ने पद्मदेव के पास ले जाना स्वीकार किया ।
तरंगवती ने अपने अत्यन्त मूल्यवान वस्त्राभूषण धारण किये और कुछ रात्रि पड़ने पर दोनों घर से बाहर निकली । जब वे पादेव के मकान पर पहुँची तो वह मित्रों के साथ आंगन में बैठा सारंगी बजा रहा था। सारसिका को दूर से ही देखकर उसने अपने मित्रों को छुट्टी देते हुए कहा-'अब मैं सोऊंगा. तुम लोग भी जाओ। इस शरद रात्रि में आराम करो। उसने सारसिका को बुलाया । तरंगवती पास वाले कक्ष में छिपी खड़ी रही।
सारसिका ने आकर पद्मदेव का पत्र देकर सन्देश कहा । तरंगवती को पत्र पढ़कर अत्यन्त आनन्द हुआ । उसमें चक्रवाक की अपनी मृत्यु तक की सारी बातों के साथ-साथ अपने हृदय की स्थिति लिखी थी। उसने साथ ही आश्वासन दिया था । तरंगवती ने हर्षोल्लास से पत्र पढ़ा था पर कुछ ठंडी पड़ गई। उसने धारणा की कि पद्मदेव धैर्य धारण करने को कहता है तो क्या उसका स्नेह ढीला पड़ गया ? सारसिका ने उसका समाधान किया।
पद्मदेव ने कहा-'सारसिके ! चलो, अपने कल वाले चित्रों का निरीक्षण करने चलें । किन्तु यह तो बतलाओ मेरी आंखों के तारे के समान तरंगवती का क्या सन्देश लाई हो?' यह कहता हुआ वह उसी कक्ष में आ गया जहाँ तीरंगवती खड़ी थी। तरंगवती ने उसे बारंबार प्रेमपूर्वक देखा जिससे उसका सारा शरीर प्रफुल्लित हो गया। सारसिका ने कहा- मैं कोइ सन्देश नहीं लाई हूँ किन्तु सागर से मिलने के लिये जैसे नदी दौड़कर आती है उसी प्रकार वह
आपसे मिलने दौड़ आई है। इसी समय तरंगवती ने पद्मदेव के चरणों में गिर कर हर्षाओं से उनके चरण प्रक्षालित किये । पद्मदेवने उसे प्रेमपूर्वक उठा कर कहा-'प्रिये.
रात्रि में तरंगवती का मन तरंगों में चढ़ा और यही सोचने लगी कि कब अपने प्रियतम से जाकर मिलूं ? अन्त में उसने गुप्त रूप से जाने का निश्चय
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