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देवचन्द को तुरन्त लाकर उपस्थित करे । राजपुरुष ने अमीचन्द के यहाँ आकर पुकारा । अमीचन्द खिड़की के आगे बैठा हुआ दातौन कर रहा था। देवचन्द को उपस्थित करने की राजाज्ञा सुनकर अमीचन्द तुरन्त उठा और देवचन्द के स्थान पर स्वयं उसके साथ चल पड़ा। अमीचन्द की स्त्री ने देवचन्द को उठाकर कहा कि "तुम्हारे भाई को राजपुरुष बुलाकर ले गया है।" देवचन्द यह सुनते ही हड़बड़ाकर उठा और दौड़ कर अमीचंद के पास जा पहुँचा । वह राजपुरुषों से कहने लगा, "अरे। तुमलोग किसे ले जा रहे हो? देवचन्द तो मैं हूँ।" अमीचन्द ने कहा, "नहीं, नहीं. देवचन्द मैं ही हूँ।" इस प्रकार कितनी देर तक दोनों का विवाद देखकर राजपुरुषों ने कहा, 'भाई, वहाँ कौन-से लड्ड बँटते हैं ? तुम दोनों में जो देवचन्द हो वही हमारे साथ चले।" देवचन्द ने बड़े ही हठ और अनुनय-विनयपूर्वक अमीचंद को अपने घर वापस भेजा और देवचन्द राजपुरुषों के साथ बादशाह के पास आया ।
शिरोपाव मँगाया और देवचन्द को नहलाकर सात बार सुनहरे शिरोपाव पहनाया। इसके बाद उसको हाथी पर बैठाकर पंच शब्द, वाजिव बजाते हुए अपनी राज कचहरी में लाया । बादशाह सिंहासनारूढ़ हुआ और देवचन्द को अपनी गोद में बैठाकर वजीर से कहा, "अरे नवलराय । तुम्हारी रूपसुन्दरी और मेरे इस पुत्र देवचन्द की जोड़ी उत्तम है. अतः इनका परस्पर विवाह हो जाना चाहिए।" वजीर ने कहा, "बादशाह सलामत की आज्ञा शिरोधार्य है । ऐसा अवश्य करें।"
___ बादशाह ने ज्योतिषियों को बुलाकर तत्काल विवाहलग्न निकाला और उसी दिन दोनों का विवाह कर के उन्हें सातमंजिला महल देकर उसमें रखा । पाणिग्रहण के पश्चात् हथलेवा छुड़ाने के अवसर पर बारह गाँवों सहित धोलका नगर दिया । कहना नहीं होगा कि बादशाह ने विवाह विधि आर्य-संस्कृति के अनुसार ही की थी। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही बादशाह ने देवचन्द के भाई व पिता को बुलाकर उन्हें अत्यन्त तिरस्कृत करते हुए कहा--"छोरू होय ते कछोरू थाई पण मावीत्र कुमावीत्र न थाये अतः तुम लोग मेरे नगर में रहने योग्य नहीं हो ।" उन्हें नगर से निर्वासित करके बादशाह ने देवचन्द के मित्र अमीचन्द को बुलाया और उसकी मित्रता को धन्य धन्य कहकर भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए पुरस्कार पूर्वक उसके घर पहुंचाया । देवचन्द और अमीचन्द अखण्ड प्रीति पालन कर सुखी हुए ।
बादशाह ने वजीर की पुत्री का स्नेह देखने के लिए कोतवाल को बुला कर उसके कान में कहा, "इसे हरगिज मारना नहीं, पर गदहे पर बैठाकर वजीर के घर के नीचे से निकालते हुए पूर्वी दरवाजे से गुजरना।" कोतवाल शाही आज्ञानुसार देवचन्द को गदहे पर चढ़ाकर पूर्वी दरवाजे पर ले गया। बादशाह स्वयं वजीर को साथ लेकर शिकार के बहाने निकल पड़ा और घूमते-फिरते पूर्वी दरवाजे पर आ पहुँचा । बादशाह ने वजीर से कहा. "अरे नवलराय। देखो तो सही, सब लोगों से भिन्न यह काले वस्त्रों वाला सवार कोन है ?" वजीर ने घोड़े की बाग उस ओर की। बादशाह और वजीर को अपने निकट आते देखकर श्याम वस्त्रधारी सवार रूपसुन्दरी चमकी और तत्काल घोड़े को मोड़ा। वजीर ने भी सामने आकर पुत्री को पहिचाना और बादशाह से कहा, "यह तो हुजूर की फरजन्द है ।" बादशाह ने प्रसन्न होकर
मित्र देवचन्द, अमीचन्द और रूपसुन्दरी तीनों अपनी परीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे । मुसलमान शासक मुहम्मद बेगड़ा की शासन पद्धति और विशाल हृदयता भी सराहनीय थी । वासना रहित सच्चा प्रेम, शील का आदर्श और मानवीय श्रेष्ठ गुणों से ओतप्रोत इस ऐतिहासिक वृत्तान्त का हार्द है । आचार्य जिनेश्वरसूरि के उपदेश इसकी पृष्ठभूमि में विराजमान हैं ।
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