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________________ गई है उसका अर्थ आगे पीछे के सन्दर्भ को देखते हुए पेढी की स्थापना नहीं होता किन्तु जीर्णोद्धारादि कार्य को कारीगर लोग ठीक तरह से कर सकें ऐसी सुविधा होता है। इसमें सिद्धाचल उपरे शब्द का अनुसंधान करने पर यह अर्थ ध्वनित होता है।" (७) "वि० सं० १७८७ पूर्व पेढी अहमदाबाद में थी इसका सबूत पालीताने की बही-खाते में मिला है।" आनंदजो कल्याजी पेढी के संस्थापक श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज थे श्वेताम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि समृद्ध पेढी अनजी कल्यागजी का नाम सर्व विश्रुत है। यह पेढी ढाई सौ वर्षों से क्रमशः उन्नति करती हुई जो सेवा कर रही है वह अवश्य ही समाज के लिए गौरव का विषय है। इसके सर्वाङ्गीण इतिहास का सम्यक् ज्ञान कराने वाली पुस्तक का अभाव बराबर खटकता था। अभी विश्रुत विद्वान श्री रतिलाल दीपचंद देसाई के सम्पा. दकत्व में प्रकाशित 'सेठ आनंदजी कल्याणजीनी पेढी नो इतिहास' का प्रथम भाग प्रकाश में आया है जिसमें पेढी की गरिना के साथ-साथ छोटी-मोटी अनेक घटनाओं पर शोधपूर्ण प्रकाश डाला गया है। वे जब इस पुस्तक को लिख रहे थे तो हमलोगों ने उन्हें इस पेढी की संस्थापना श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज द्वारा होने की सूचना दी थी जिसे उन्होंने अमान्य करते हुए मुझे ता० २१-१०-८० के पत्र में इस प्रकार लिखा कि (५) "देवविलास (ऐतिहासिक जैन-काव्य संग्रह, पृ०२८१) में पूज्य देवचंद्रजी महाराज की प्रेरणा से सिद्धाचल के ऊपर कारखाना बनने की जो बात लिखी मैंने विचार किया कि यही समय तो श्रीमद देवचन्द्रजी महाराज के शबंजय तीर्थोद्धार का कार्यकाल है। शिलालेख, पेढी के खाता-बही, स्तवनादि अन्य प्रमाणों से विश्वस्त होकर सम्पादक महोदय सही इतिहास स्वीकार कर लिख देंगे क्योंकि उस समय श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ही एकमात्र ऐसे सर्वोच्च ज्ञानी, सर्वगच्छमान्य, युगप्रधान कल्प महापुरुष थे जिन्होंने अपनी ३० वर्ष की आयु में अदभुत ज्ञान दशाप्राप्त की और राजस्थान से गुजरात पधार कर अपनी समस्त आयु गुजरात में बितायी। अर्थात् सं० १७७७ से सं०१८१२ तक श@जय तीर्थोद्धार के लिए उपदेश देते हुए पाटग, अहमदाबाद, खंभात. सूरत. ध्रांगध्रा, राधनपुर. लींबड़ी, बढवाण, भावनगर, नवानगर (जामनगर ). परधरी, चूड़ा आदि गुजरात के विविध स्थानों में विचरण कर अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार किया। मूर्तिपूजा के विरोधी दंढकमत के फैलते हुए प्रचार को रोक कर बन्द पड़े मन्दिरों में पूजा प्रारम्भ करवायी। नये मन्दिरों का निर्माण एवं पुरानों का जीर्णोद्धार एवं सार-संभाल के साथ वहाँ की जनता को मूर्तिपूजा स्वीकार कराके सन्मार्ग में चढ़ाकर उपकृत किया। इसी बीच शत्रुजय के जीर्णोद्धार का कार्य सतत् चालू रहा। आपने उपदेशों द्वारा प्रेरित करते हुए अनेक बार श@जय संघ निकलवाये. गुरु महाराज श्री दीपचन्द्रोपाध्याय और शिष्यमण्डली सहित अनेकशः प्रतिष्ठाए' कराई। उस काल में उनके सनकक्ष आनेवाली एक भी प्रभावशाली प्रतिभा नहीं थी जिनके उपदेश से यह महान कार्य होता। १७२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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