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श्वेतांबर समाज में गुरुजनों के उपदेश, प्रेरणा और आशीर्वाद के बिना कोई भी कार्य नहीं हुआ करता । सारे समाज में उस समय उनके जैसा विद्वान, उपदेष्टा और व्यक्तित्व वाला आत्म-लब्धि सम्पन्न अन्य कोई नहीं था। अतः श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज द्वारा पेढी की स्थापना का श्रेय स्वीकार करेंगे पर विद्वान लेखक ने ऐसा न कर महोपाध्याय विनयसागरजी को ता० ८-७-८३ के पत्र में उनके ता० ३०-५-८३ के उत्तर में मुझे लिखे हुए उपर्युक्त खुलासे का उल्लेख करते हुए इस प्रकार लिखा
'देवविलास ( पृ० २८१ ) मां आ प्रमाणे लख्यंछेतीर्थ महात्म्यनी प्ररूपणा गुरुतणी, सांभले श्रावक जन्न । सिद्धाचल उपर नवनवा चैत्यनी, जीर्णोद्धार करे सुदिन्न ||५|| कारखानो तिहां सिद्धाचल उपरे मंडाव्यों महाजन्न । द्रव्य खरचाये अगणित गिरि उपरे उलसित थाये रे तन्न ॥६॥
"आ कड़ी मां श्री सिद्धाचल उपर कारखानुं कराव्या नुं लख्यं छे तेनो अर्थ एवो समजवानो छे के जूना मन्दिरो ना जीर्णोद्धार माटे तथा नवा मन्दिरो नुं निर्माण करवा माटे शिल्पिओ अने कारीगरो ज्यां बेसो ने काम करी शके एवं कारखानुं एटले छाप गिरिरज ऊपर उ करवामां आव्यं एटले एनो अर्थ एवो नथी थती के श्रीशत्रुंजय महातीर्थ नी बधी व्यवस्था संभाली शके एवी पेढी नी स्थापना करवा मां आवी हती जो आवी पेढी नी स्थापना नो आ बात होत तो ते सिद्धाचल उपर नहीं पण, पालीताणा शहेर मां करवामां आवी होत आ कड़ो मां नो 'सिद्धाचल उपर ए शब्दो खास महत्व नो छे, जे आ भावन सूचन करे थे।
"वली आ ग्रंथ नी शुरुआत मां ऐतिहासिक सार लख्यो छे तेमां ( पृ० आ कड़ी नो जे सार नाँध्यो छे तेपण समर्थन करे छे, ते आ प्रमाणे छे
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काव्यों का ५८ मा ) आ बात नं
* व्याख्यान में आपने शत्रुंजय तोर्थ की महिमा बतलाई, इससे श्रावकों ने शत्रुंजय पर कारखाना स्थापित कर नवीन चेत्य और जीर्णोद्वार करवाना आरंभ किया ।"
"एटले 'देव विलास' मां नो आ उब्जेख त्री शत्रुंजय तीर्थ नो वहीवट संभाली शके एवी पेढीनी स्थापना ने लगतो नथी, ए आप समझी शकशी"
इस पत्र में लेखक महोदय ने 'कारखाना' का अर्थ कारीगरों के काम करने का 'छपरा' किया है, जबकि इस ग्रंथ के पृ० १०६ में स्वयं "ते गिरिराज श्री शत्रुंजय तीर्थ नो वहीवट संभालती पालीताना नी पेढ़ी नो अर्थात् कारखाना नो छे" "२ तीर्थ स्थान नो वहीवट संभालती पेढी ने श्री संघ मोटे भागे, 'कारखाना' ना नाम थी ओलखे छे" शब्दों द्वारा कारखाना, कार्यालय या पेढी एक ही अर्थ के द्योतक स्वीकार किया है। पृ० १०५ ९ में पेढ़ी के लिए आठ बार कारखाना शब्द आया है। राजस्थान में भी राज्य के कई कारखाने होते थे जिनमें बीकानेर के किले में बड़ा कारखाना के आफिशर शाह नेमचंदजी कोचर थे जिनसे महाराजा गंगासिंहजी को भी पहनने के जेवर आदि माँगने पड़ते थे। अतः कारखाने का अर्थ 'छपरा' करना यह लेखक महोदय की ही विचित्र सूझ-बूझ है । पेढी में प्राप्त सर्व प्राचीन सं० १७७७-७८ के चोपड़े हैं, तदनुसार वहां का नया वर्ष आषाढ़ सुदि २ ( रथयात्रा ) से प्रारंभ होता है जबकि गुजरात में कार्तिक सुदी १ को नया संवत् होता है। सं० १७८१ से १७८४ के चोपड़ों में भी आनंदजी कल्याणजी का नाम नहीं मिलता चोपड़ों के अनुसार सं० १७५७ में सर्व प्रथम सेठ आनंदजी कल्याणजी का नाम दृष्टिगोचर होता है। इससे मालूम होता है नं० ४ चौपड़े के समय पेठी का नामकरण नहीं हुआ था जो बाद में हुआ। इस वर्ष भी पालीताना की बहियों में "अकारो
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