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कल्याण" राजनगर और अहमदाबाद पेढी का खाता है। इसी वर्ष चोपड़ा नं० ७ में आनंदजी कल्याणजी के नाम जमा नावें मिलता है। संभवतः पेढी का नाम भगवान के नाम पर आरम्भ समारंभ से बचने के लिए 'अकार' अर्थात् आदीश्वर दादा के कल्याणकारी सांकेतिक नाम दिया हो क्योंकि 'अकारों का नाम स्पष्ट अर्थ बोधक नहीं है।
कल्याण सुख रस में' पद कर्णगोचर हुआ तो भंडारीजी ने सुझाव दिया कि पेढी का नाम यही रखा जाय । गुजरात के सूबेदार श्री भंडारी जी द्वारा पेढी का नामकरण सुनकर उनके प्रधान श्री आणंदराम शाह को उसमें अपना नाम आते देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। संघ ने पेढी का नाम 'आनंदजी कल्याणजी प्रसिद्ध कर दिया ।
श्री आनंदजी कल्याणजी नामकरण के लिए जो जनश्रुति गीतार्थ स्थविरों के मुख से महोपाध्याय विनयसागरजी ने सुनी थी वह इस प्रकार है
अहमदाबाद में जोधपुर के श्री रतनसिंह मंडारी सूवेदार थे। उस समय अहमदाबाद के एक तत्वज्ञ सेठ शाह आणंदराम जी ढुंढियों के चक्कर में थे, श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज के पास आकर तत्वचर्चा किया करते थे। वे गुरु महाराज के अथाह ज्ञान को देखकर अभिभूत होकर मूर्तिपूजा के दृढ़ श्रद्धालु और श्रीमद् के परम भक्त हो गए। उन्होंने सूबेदार श्री रतनसिंहजी भण्डारी के समक्ष कहा-"मारवाड़ से आये हुए समस्त विद्या से पारंगत ज्ञानियों में शिरोमणि गुरु महाराज यहाँ विराजते हैं।" भण्डारी जी अपने अग्रेश्वरी श्री आणंदरामजी के साथ श्रीमद् के सम्पर्क में आये और उनके तत्व ज्ञान की गहराई देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे प्रतिदिन पूजा अर्चा करने लगे। अहमदाबाद में मृगी उपद्रव फैलने पर भण्डारी जी की प्रार्थना से श्रीमद् ने रोगोपशान्ति की। मराठा सेना के साथ रणकुजी ने जब अहमदाबाद पर चढ़ाई की तो श्रीमद् देवचंदजी महाराज की कृपा से अल्प सेना होने पर भी विजय प्राप्त कर गुजरात को बचाने में भण्डारी जी सफल हुए। अहमदाबाद में मंदिर बिम्ब प्रतिष्ठाए हुई। एक दिन सतरह भेदी पूजा हो रही थी। शत्रुजय के हेतु पेटी की स्थापना हुई उपाध्याय साधुकीति जी कृत सतरह भेदी पूजा की तेरहवीं अष्ट मंगल पूजा के अन्त में जब 'आणंद
श्रीमद् देवचन्द्रजी महाराज ने सं० १७७९ में खंभात के चातुर्मास में शत्रुजय महात्म्य की व्याख्या करते हुए तीर्थोद्धार के लिए सचोट उपदेश दिया। सं० १७७७ में अहमदाबाद नगोरीसराय में चातुर्मास किया तब भी माणिकलालजी स्थानकवासी को प्रतिबोध देकर ढूंढकों के पास से मुक्त कराया और उनके नूतन चैत्यालय में विम्ब स्थापना की एवं शांतिनाथजी की पोल में भूमिगृह में सहस्रफगा, सहस्रकूट विम्वादि प्रतिष्ठित किए थे। श्रीमद ने सूरत चातुर्मास करके वहाँ भी शत्रुजय के निमित्त अर्थसंग्रहार्थ आनंदजी कल्याणजी की पेढी स्थापित कराई थी जिसका नामकरण भले बाद में हुआ हो, पेढी के सं० १७९०-९१ के चौपड़ों से प्रमाणित है। सिद्धाचलजी के कारखाना की बही में "सेठजी आणंदजी कल्याणजी सुरत" तथा "श्रीसुरत सेठ आणंदजो कल्याण" नाम से प्रमाणित है। देवविलास के अनुसार शत्रुजय तीर्थोद्धार के बीच सूरत की विनती से संवत्ः १७८४ का चातुर्मास वहाँ किया । उसी समय के उपदेश प्राप्त सूरत के कल्याणचंद्र सोमचंद्र के सं०१७८५ के निर्मापित समवशरण अभिलेख से प्रमाणित है।
श्रीरतिलाल भाई ने लिखा है कि देवविलास मैं कारखानों सिद्धाचल उपरे लिखा है यदि पेढी की स्थापना का लिखते तो पालीताना में होता। परन्तु यह व्यावहारिक सत्य है कि पालीताना और सिद्धाचलजी पर्यायवाची है क्योंकि कोई भी यात्री सिद्धाचलजी पर नहीं रहते। रहते तो शहर की धर्मशाला या घरों में हैं। पहाड़ पर खाना-पीना या शौच-क्रिया भी कुछ नहीं
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