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________________ विनती सुरति बंदिर' नी भली. चौमासा नी रे विशेष ।। सु०॥पाती। श्रीदेवचन्द्रजी 'सुरतिबंदिरे' कीधा भविने उपगार ।। सु० ॥ पंचासीये छयासये, जाणीये, बुद्धितणा जे भंडार | सु० ॥९॥ती०॥ करते अतः कारखाना मंडाने का अर्थ पालीताने का ही समझना चाहिए न कि 'छपरा बंधाने जैसा धृष्टतापूर्ण अर्थ जो कभी रासकार का अभिप्राय नहीं हो सकता । यात्री सांघ जो शत्रुजय जाता था सीहोर, पालीताना या गरियाधार कहीं से तीर्थ को वधाकर पड़ाव डालता था । आज समेतशिखरजी जाने वाले यात्री मधुवन जाने का नहीं कहते सदा से ही समेतशिखरजी कहते आये हैं चाहे संघ के पड़ाव पालगंज. तोपचांची, निमियाघाट कहीं भी रहे हों आज मधुवन ठहरते हैं और वहीं ठहरना खाना-पीना तलहटी के मन्दिर धर्मशालाओं से समृद्ध होने पर भी कहते समेतशिखरजी का ही है और पेढी आदि सब मधुवन में है । अतः पालीताना और सिद्धाचल नाम के चक्कर में जाना कोई औचित्य नहीं रखता। इसी रास में अनेकशः शत्रुजय, पालीत ना जो एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, श्रीमद के अनेक बार पधारने और चैत्य-बिम्बप्रतिष्ठादि के साथ-साथ संक्षिप्त उल्लेख है । यहाँ देवविलास की उन गाथाओं को उदधृत किया जाता है तीर्थ महात्म्य नी प्ररूपणा गुरुतणी, सांभले श्रावकज्जन्न ॥ सु०॥ सिद्धाचल ऊपर नवनवा चैत्यना. जीर्णोद्धार करे सुदिन्न ।। सु० ॥शाती० । पालीताणे प्रतिष्ठा करी भली, खरच्यो द्रव्य भरपूर ।। सु०॥ 'वधुसाये चैत्य शत्रुजय उपरे, प्रतिष्ठा देवचन्दनी भूरि ||सु०||१०||ती०। इसके बाद की गाथाओं में १७९६ में १८०४ में पालीताना पधारने और वहाँ के मृगी उपद्रव दूर करने और सं०१८०८ में शत्रुजय संघयात्रा में सं० १८१० कचरा कीका के संघों में आने और साठ हजार द्रव्य व्यय कर प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। सं० १८१२ में अहमदाबाद में उनका स्वर्गवास हो गया। इन्हीं वर्षों में गुजरात के अन्य स्थानों में विचर कर श्रावकों को. राजाओं को, ठाकुरों को प्रतिबोध देने तथा जिन मन्दिरादि प्रतिष्ठा कराने एवं ग्रन्थ रचना का उल्लेख है। इसके लिए देवविलास देखना चाहिए। श्रीमद देवचंदजी महाराज ने अनेकशः पालीताना जाकर प्रतिष्ठाएँ कराई जिनके अभिलेख तत्कालीन लेखों में सर्वाधिक है पर वे अभी तक अप्रकाशित हैं। नमूने के तौर पर कापरड़ाजी के जिनालय निर्माता भानाजी भंडारी के वंशजों के एक लेख की नकल यहाँ दे रहा हूँ जिसमें श्रीमद् के द्वारा शत्रुजय, आबू. गिरनार प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। "स्वस्तिश्री जयो मंगला भ्युदयश्च, संवत् १७९४ वर्षे शाके १६५९ प्रवर्त्तमाने आषाढ सुदि १० रविवारे ओइस वंशे वृद्ध शाखायां नाडूल गोत्रे भंडारी जी श्री भानाजी तत्पुत्र मैं। नारायणजी पुत्र मं। ताराचंदजी पुत्र अनेक चैत्योद्धारक मं । रूपचंदजी तत्पुत्र न्याय कलित अनेक जैन शासन कार्य कारखानो तिहाँ सिद्धाचल उपरे. मंडाव्यो महाजन्न । सु०॥ द्रव्य खरचाये अगणित गिरि उपरे. उल्लसित थाये तन्न || सु० ॥६||ती० । संवतसतर एकासीये (१७८१) ब्यासीये त्र्यासीये कारीगरे काम ।।सु चित्रकार सुधानां काम ते. दृषद् उज्वलता रे नाम ।। सु० ॥७॥तो०। फिरी ने श्रीगुरु 'राजनगरे' भला, तिहां भविने उपदेश ॥ सु० ॥ [ १७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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