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वाले दिखाये गये हैं । इसके बाद का चित्र जिन्हें यह विज्ञप्ति लेख भेजा गया है उन श्री पूज्य जी "जिनभक्ति सूरिजी का है, जो सिंहासन पर विराजमान हैं. पीछे चंवरधारी खड़ा है. श्री पूज्यजी स्थूल काय हैं। उनके सामने स्थापनाचार्य तथा हाथ में लिखित पत्र है वे जरी की बूटियोंवाली चद्दर ओढ़े हुये व्याख्यान देते हुए दिखाये गये हैं । सामने तीन श्रावक, दो साध्वियां व दो श्राविकाएं स्थित हैं। पूठिये पर चित्रकार ने श्रीपूज्यजी का नाम व इस लेख को चित्रित कराने वाले नन्दलाल जी का उल्लेख करते हुये अपना नामोल्लेख इन शब्दों में किया है :
'सबी भट्टारकजी री पूज्य श्री श्री जिनभक्तिजी री है। करवतं वनाररूजी श्री श्री नन्दलालजी पठनार्थ ||०|| मथेन अखराम जोगीदासोत श्री बीकानेर मध्ये चित्र संजुक्त || श्री श्री ॥
उपर्युक्त लेख से चित्रकार जोगीदास का पुत्र अखेराम प्रथेन था और धीकानेर में ही विद्वद्वयं नन्दलालजी की प्रेरणा से ये चित्र बनाये गये सिद्ध हैं। तदनंतर लेख प्रारम्भ होता है।
प्रारम्भ के संस्कृत श्लोकों में मंगलाचरण के रूप में आदिनाथ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और महावीर भगवान् की स्तुति एवं वंदना करके १४ श्लोकों में राधनपुर नगर का वर्णन है। फिर श्लोकों में जिनमक्ति ८ सूरिजी का वर्णन करके गद्य में उनके साथ पाठक नयमूर्ति पाठक राजसोम, वाचक पूर्णभक्ति, माणिक्य सागर, प्रीतसागर, लक्ष्मीविलास, मतिविलास, ज्ञानविलास और खेतसी आदि १८ मुनियों के होने का उल्लेख किया गया है, फिर बीकानेर का वर्णन कर महाराजा जोरावरसिंह का वर्णन गद्य में करके दो पद्य दिये हैं । फिर नगर वर्णन के दो श्लोक देकर वीकानेर में स्थित नेमिरंगगणि, दानविशाल, हर्षकलश, हेमचन्द्र आदि की
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वंदना सूचित करते हुए उभय ओर के पर्वाधिराज के समाराधन पूर्व प्रदत्त व प्राप्त समाचार पत्रों का उल्लेख किया है । तदनन्तर विक्रमपुर के समस्त श्रावकों की वंदना निवेदित करते हुए वहां के प्रधान व्याख्यान में पंचमांग भगवती सूत्र वृत्ति सहित के लघु व्याख्यान में शत्रुंजय महात्म्य के बांचे जाने का निर्देश है । स० १८०१ के मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को लेख तैयार हुआ व भेजा गया है। उपर्युक्त पूरा लेख संस्कृत भाषा में है। इसके बाद दो सवैये और दो दोहे हिन्दी में हैं। जिनमें जिनभक्तिसूरिजी का गुण वर्णन करते हुए उनके प्रताप बढ़ाने का आशीर्वाद दिया गया है । दूसरे सवैये में उनके नन्दलाल द्वारा कहे जाने का उल्लेख है।
विज्ञप्ति लेख टिप्पणाकार है। उसके मुख्य पृष्ठ पर 'वीनती श्री जिनमक्तिसूरिजी महाराज ने चित्रां समेत लिखा है।
लेख परिचय यहां समाप्त होता है। अब इसमें आये हुए सूरिजी व विद्वान् मुनियों के नामों से जिनका कुछ विशेष परिचय प्राप्त है उनका विवरण दिया जा रहा है
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१. जिनमक्तिसूरिजी ये श्रेष्ठीय गोत्रीय शाह : हरचंद की पत्नी हरसुखदे की कुक्षि से इंदपालसर में सं० १७७० के ज्येष्ठ सुदी ३ को उत्पन्न हुए थे। मूल नाम भीमराज था। सं० १७७९ की माघ सुदी ७ को जिनसुखसूरिजी से आपने दीक्षा ली। दीक्षा नाम भक्तिक्षेम था । सं० १७८० में रिणी में जिनसुखसूरिजी ने व्याधि उत्पन्न होने पर अपना अन्तकाल निकट जान जेठ वदी ३ को इन्हें आचार्य पद दिया । सं० १८०४ जेठ सुदी ४ का कच्छ स्थित मांडवी में आपका स्वर्गवास हुआ। गूढ़ा नगर के अजित जिनालय की आपने प्रतिष्ठा की प्रीतिसागर आदि आपके कई शिष्य थे, जिनकी परम्परा में अमृतधर्म क्षमाकल्याण
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