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होनी चाहिए. संस्कृत उसका संस्कारित रूप है। संस्कृत भाषा तो व्याकरण के कारण बहुत कुछ नियमबद्ध तथा एक से रूप में रही पर प्राकृत तो जन-साधारण की बोलचाल की भाषा थी उसपर व्याकरण का बंधन लागू नहीं हो सकता था। इसलिये प्रकृति से ही देश-काल-भेद से उसमें परिवर्तन होता ही रहा, और वह परिवर्तन इतना अधिक हो गया कि संस्कृत वैयाकरणिक भी बहुत से जनप्रचलित शब्दों की व्युत्पत्ति ठीक से नहीं कर पाए । इसलिये उन्होंने उन शब्दों को देशी और अपभ्रंश के नाम से अलग वर्ग में रखकर ही छुट्टो ले ली। ऐसे शब्द हजारों हैं जिनमें से कुछ का संग्रह आचार्य हेमचंद्र ने 'देशी नाम माला' में किया है पर उसमें नहीं आए हुए तथा साहित्य में व्यवहृत और भी हजारों देशी शब्द मिलते हैं जिनके संग्रह का प्रयत्न अभी तक नहीं हुआ. जिसका होना नितांत आवश्यक है। इस महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य में सबसे अधिक सहायक जैन साहित्य एवं लोकभाषाओं में निर्मित साहित्य ही हो सकता है।
'ढोलामारू रा दूहा' के
अर्थसंशोधन पर विचार
शब्द शास्त्र अनंत है। एक-एक शब्द के अनेक पर्याय एवं रूप मिलते हैं और एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हैं। देश और काल के भेद से शब्द रूपों में इतना अधिक परिवर्तन आ जाता है कि मूल शब्द की खोज का काम बड़ा विकट हो जाता है। एक ही शब्द का अर्थ किसी एक प्रदेश में कुछ किया जाता है तो अन्य प्रदेश में उससे भिन्न-सर्वथा विपरीत ही । वैयाकरणों ने भी एक शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से बतलाई है और उससे उसके अर्थ में बहुत भिन्नता आ जाती है। इसलिये सही अर्थ को प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है। बहुत से प्राचीन शब्द भुला दिए जाते हैं कुछ नए गढ़ दिए जाते हैं, कुछ का अर्थ विकृत हो जाता है अर्थात् दीर्घकाल के बाद शब्दों का रूप ही परिवर्तित हो जाता है अतः अर्थानुसंधान में बड़े-बड़े विद्वान भी पूर्ण सफल नहीं हो पाते।
प्राचीनकाल से व्याकरण तथा कोशग्रथ समय-समय पर निर्मित होते रहे हैं जिनसे अर्थानुसंधान में पर्याप्त साहाय्य मिला है पर अधिकांश व्याकरण कोश संस्कृत के विद्वानों ने ही बनाए. इसलिये प्राकृत, अपभ्रश और लोकभाषाओं में प्रचलित हजारों शब्द उनमें प्रविष्ट न हो सके और बहुत से शब्दों की व्युत्पत्तियाँ भ्रांत रूप में पाई जाती हैं। प्रचीन काल में समस्त ग्रंथों की प्राप्ति सुलभ नहीं थी। बड़े-बड़े संग्रहालय भी इतने नहीं थे और जिज्ञासुओं की पहुँच भी सर्वत्र संभव नहीं थी। ऐसी स्थिति में हमारे व्याकरण और कोशकार जितना भी कर पाए. वह भी बहुत है और हमारे लिये वह अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है पर आज के युग में उन कोशों या नाममालाओं से ही काम नहीं चल सकता । मुद्रणयुग में हजारों ग्रंथ प्रकाशित होकर सर्वसुलभ हो गए हैं। सारा विश्व यातायात के साधनों की सुलभता से एक दूसरे से संबद्ध हो गया है।
उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा कौन सी थी, यह तो नहीं कहा जा सकता पर उपलब्ध साहित्य में 'वेद' ही सबसे प्राचीन हैं और उनकी भाषा संस्कृत है, इसलिये विद्वानों की राय है कि संस्कृत से प्राकृत का विकास हुआ है पर प्राकृत एवं संस्कृत दोनों शब्दों पर विचारने पर यह सहज ही में पता चल जाता है कि प्राकृत ही मूल भाषा
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