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________________ सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी अपने 'विविध तीर्थ कल्प' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ में भी इस मंदिर का उल्लेख इस प्रकार करते हैं : "अस्थि सवालक्ख देशे मेड़त्तय नगर समीवठिओ वीर भवणाइनाणाविह देवालयाभिरामो फलवदी नाम गामी। तत्थ फलवद्धि नामधिज्जाए देवीए भवणमुत्तुंग सिहरं चिह्न । सोअ रिद्धिसमिद्धोवि कालक्कमेण उव्वसपाओ संजाओ। तहावि तत्त्थ कित्ति आ वि वाणिअगा आगंतून अवसिंसु ।" अर्थात् सपादलक्ष ( सवा लख ) देश मेड़ता नगर के निकट वीर मंदिर* आदि देवालयों से सुंदर फलवद्धि ( फलोदी ) नाम का गाँव है। वहाँ फलवर्द्धि नाम की देवी का ऊंचे शिखरांवाला मंदिर प्रतिष्ठित है। वह गाँव ऋद्धि से समृद्ध होने पर भी कालक्रम से उजाड़ हो गया। फिर भी वहाँ कितने ही व्यापारी आकर बसे । इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि यह मंदिर चौदहवीं शताब्दी तक तो फलवर्द्धिका देवी के नाम से ही पहिचाना जाता था, क्योंकि श्री जिनप्रभसूरिजी का समय चौदहवीं शताब्दी है। फलवद्विका देवी का नाम ब्रह्माणी माता कब से प्रसिद्ध हुआ ? या ब्रह्माणी का अपर नाम फलवद्धिका देवी है, यह बात विचारणीय है। दूसरा प्रश्न यह है कि ब्रह्माणी माता का नाम फलवद्धिका देवी, फलौदी गाँव के नाम से हुआ या देवीजी के नाम से गाँव का नाम फलवद्धि ( फलौधी ) प्रसिद्ध हुआ? पार्श्वनाथ भगवान का जैन तीर्थ होने से पीछे से पारसनाथ फलोधी' प्रसिद्ध हो जाने के कारण नाम में भ्रम न हो, इस से माताजी का नाम 'ब्रह्माणी देवी' कहने लग गये हों, यह भी संभव है। Jain Education International इस शिलालेख में मंदिर के निर्माण करने वाले सूत्र - धारों के वंश - पुरुषों के नामों के अतिरिक्त 'पुष्करणांक वारी' जो नगर का नाम आया है वह वर्तमान 'पुहकरण' का ही नाम है या दूसरा ? और अन्त में अण्डज, स्वेदज, उद्भिज और जरायुज जीवोत्पत्ति संस्थान का जो नाम आया है उसका क्या कारण है ? विद्वान लोग खुलासा करें। इस लेख में संवत् या ऐतिहासिक घटना का उल्लेख नहीं है, फिर भी लिपि की दृष्टि से यह महत्व का है। मैं लिख चुका हूँ कि मंदिर के समक्ष एक सुन्दर उत्तुंग तोरण गजराज की भाँति अवस्थित है। उस तोरण का टूटा हुआ विशाल पत्थर सामनेवाले तालाब के नाले में पड़ा हुआ है। व्यवस्थापकों को चाहिए कि वहाँ से उठाकर उसे यथास्थान लगवा दें अथवा संभालकर रख दें जिससे भग्नावशिष्ट प्राचीन शिल्प का नाश न हो। * इससे वहाँ महावीर जिनालय की भी सत्ता मालूम होती है जो अभी नहीं है । For Private & Personal Use Only [५ www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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