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के जोधपुर के शिलालेख से विशेष मिलते हैं जो कि 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' के २३वें लिपि-पत्र में प्रकाशित है। वह लेख वि० सं० ८९४ का होने से इस लेख का समय भी विक्रम की नवीं शताब्दी समझा जा सकता है।
इस शिलालेख के नीचे आठवीं पंक्ति के रूप में नागरी लिपि में 'उ० सनाढा कापड़ी' खुदा हुआ है। इन शब्दों की लिपि देखने से ज्ञात होता है कि कई शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर किसी ने पीछे से लिखा होगा, क्योंकि यह लिपि उससे बहुत अर्वाचीन है।
ब्रह्माणी माता का मन्दिर सेवगों (भोजक, सेवक या शाकद्वीपीय ब्राह्मणों) का है। सुना है कि ग्राम भी इसी मंदिर के लिए राज्य की ओर से भेंट है।
श्रीयुक्त जगदीशसिंह गहलोत अपने 'मारवाड़ राज्य के इतिहास के पृष्ठ ३१२ में इस मंदिर के बारे में इस प्रकार लिखते हैं:
इस शिलालेख का पहला अक्षर ७ गुप्तकालीन ओंकार का तत्समय प्रचलित प्राचीन रूप है। उसके पश्चात 'ॐ' से कुटिल लिपि प्रारंभ होती है। इस लिपि में ह नागरी 'ड' के सदृश और 'ड' वर्तमान 'र' के सदृश है जैसे छठी पंक्ति के दूसरे अक्षर में 'अंडज' लिखा गया है। 'ज' वंगला लिपि 'ज' से और 'स' मारवाड़ी के 'स' से खूब मिलता है। इसके विरुद्ध प्रतिहार बाउक के लेख का 'स' नागरी के वर्तमान 'भ' से विशेष मिलता-जुलता है।
इस लेख की प्रथम पंक्ति का 'फ' और 'ल' अक्षर प्रतिहार राजा बाउक के लेख के अक्षरों से अधिक विकसित रूप में है। दीर्घ ईकारान्त की मात्रा जिनजिन अक्षरों में है. पूरी दी गई है । परन्तु दूसरी पंक्ति के अंतिम अक्षर 'सी' लिखने में मात्रा को सामान्यसा टानकर छोड़ दिया है। तीसरी और पाँचवी पंक्ति में सूत्रधार लिखने में दीर्घ ऊकार की मात्रा को लंबी न खींचकर 'स' के नीचे 'त' की भाँति लगा दिया है, जैसा कि कुछ प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों में भी देखा जाता है । इसके विरुद्ध प्रतिहार वाउक वाले शिलालेख में मात्रा के स्थान में 'ऊ' को ही संयोजित कर दिया है। तीसरी, चौथी
और पाँचवी पंक्ति में जो 'त्र' लिखा है उसे 'त' के नीचे । 'र' लिखकर संयुक्त कर दिया गया है।
"फलोदी गाँव में (जो मेड़ता रोड कहलाता है) ब्रह्माणी माता और पार्श्वनाथ का जैन मंदिर है। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि ब्रह्माणी माता का मंदिर सं० १०८८ में या उसके पहिले बना था। फिर मुसलमानों द्वारा तोड़े जाने पर जब-जब अवसर मिला, उसकी मरम्मत की गई। पहली मरम्मत सं०१४६५ में गहलोत दूढा ने की। उस समय गहलोतों का राज्य मेड़ते में था, जिनका नाम इस परगनें के और भी शिलालेखों में मिलता है। बाद में सं० १४५५, १५३५ और १५५१ में इसकी मरम्मत हुई। यह मंदिर पुराने शिल्प और पत्थर के काम का अच्छा नमूना है। इसका बहुत-सा भाग मुसलमानी राज्यों में मुसलमानों के मूर्ति तोड़नेवाले प्रबल हाथों से नष्ट हो चुका है। तो भी जितना कुछ बाकी है वह अब इस गिरी हुई दशा में भी अपनी झीनी और अनोखी कारीगरी की वारीकी और सुन्दरता का चमत्कार दिखाने के लिए बहुत है।"
यह लेख बड़े-बड़े अक्षरों की सात पंक्तियों में उत्कीर्ण है जिनमें क्रमशः ११, ११, १३, १३, १४, १३ और अंतिम पंक्ति में केवल दो अक्षर ही हैं। अंतिम पंक्ति में 'युजं ।' में संबंध देखते 'र' अक्षर छुट गया प्रतीत होता है. क्योंकि इसका पूरा शब्द 'जरायुज' होना चाहिए।
श्री गहलोतजी ने जो बातें लिखी हैं उससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। संभव है, उन्हें वहाँ कोई सं० १०८८ का लेख प्राप्त हुआ हो। मेरे पास जो ३-४ अन्य लेख हैं वे अशुद्ध हैं. अतः पढ़े नहीं जा सकते।
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