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तोरण दृष्टिगोचर हुआ। उसका मध्यवर्ती घबनां टूटकर गिरा हुआ था। शिल्पकला को देखने पर मंदिर १०००. १२०० वर्ष प्राचीन प्रतीत हुआ, अतः कोई शिलालेख प्राप्त होने की आशा से मैं मंदिर में गया। इस मंदिर के गर्भगृह के दाहिनी ओर एक स्तंभ पर खुदे हुए कई लेख मिले जो शुद्ध और सुवाच्य नहीं थे। उनमें से एक की लिपि बहुत पुरानी थी। उस लिपि का पर्याप्त ज्ञान न होने से अपनी नोटबुक में उसकी नकल न कर, एक ऐसे मुद्रित विज्ञापन पर, जो दूसरी तरफ खाली था, कुछ समय के परिश्रम द्वारा पेंसिल से मैंने धीरे-धीरे अविकल नकल कर डाली। उसी स्तंभ पर जो दूसरे लेख उत्कीर्ण थे वे संवत् १४६०,१५३५. १५५१ और १५७९ के थे जिनमें संवत् १५३५ चत्र शुक्ला १५ वाले लेख में प्रासादोद्धार का वर्णन था।
फलौधी की कुटिल लिपि
फलौधी अर्थात् मेड़तार ड मारवाड़ का सुप्रसिद्ध प्राचीन जैन तीर्थ है। वहाँ आश्विन और पौष कृष्णा १० के दिन वर्ष में दो बार मेला लगता है, जिसमें सहस्रों की संख्या में जैन और जेनेतर जनता एकत्र होती है। विगत आश्विन के मेले में सौभाग्यवश मैं भी वहाँ गया । तेइसवें जैन तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ भगवान् की सप्रभाव श्यामवर्ण प्रतिमा लगभग ८०० वर्ष पूर्व भूमि में से निकली हुई है। मंदिर भी १२ वीं शताब्दी का बना हुआ है। इस तीर्थ की उत्पत्ति चमत्कारमय होने के कारण यह मारवाड़ का मुख्य जैन तीर्थ कहलाता है। प्राचीन और अर्वाचीन सभी तीर्थमालाओं में इस तीर्थ का नाम स्मरण किया गया है।
बीकानेर आकर उस लेख को कुछ तो मैंने स्वयं पढ़ा और कुछ माननीय डा० दशरथ शर्मा एम० ए० महोदय ने। अंत में जो अक्षर अस्पष्ट रह गये उनका, बीकानेरनरेश की गोल्डन-जुबिली पर महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के पधारने पर उनसे पूछ कर, जो नागरी अक्षरांतर हुआ वह इस प्रकार है:
दशमी के मध्याह्न में मंदिर से पार्श्वनाथजी की रथयात्रा निकालकर निकटवर्ती तालाब पर ले जाते हैं। इस उत्सव में गायन-वाद्यादि द्वारा प्रभु-भक्ति करने के हेतु सभी यात्री सम्मिलित हुआ करते हैं। मैं इसके कुछ आगे बढ़कर एक विशाल मंदिर की शोभा देखने के लिए चल पड़ा। वह मंदिर ब्रह्माणी माता का था। उसके आस-पास कुछ मूर्तियाँ और प्राचीन देवलिये भी पडो हुई थीं, परन्तु उन पर कोई लेख नहीं था। मंदिर के समक्ष एक पीले पाषाण का विशाल और सुन्दर उत्तुंग
७ औं नम श्री फलवद्धिका दे वि। श्री पुष्कर गांक वारी वासी सूत्रधार बाहुक । तस्य समुत्पनी भद्रादित्य । तत्र च जातो मचारवि । तस्य पुत्रोत्पन सिसुरवि सूत्रधार । अण्डज स्वेदजौ वापि । उद्विजं च ज
(र) युज। यह लेख कुटिल लिपि का है। ईसवी सन् की छठी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी पर्यन्त अर्थात् गुप्त लिपि के पश्चात् और नागरी लिपि से पूर्व इस लिपि का प्रचार था। इसके अक्षर बहुधा प्रतिहार राजा बाउक
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