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________________ हजारों मील दूर पड़े ग्रंथों को भी हम माइक्रोफिल्म, फोटोस्टेट आदि के द्वारा सहज प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक ढंग से संपादित विशाल कोशन'थों का निर्माण होना परमावश्यक है। भारतवर्ष में प्रधानतया तीन संस्कृतियों का विशेष प्रभाव रहा है-वैदिक संस्कृति, श्रमण संस्कृति और द्रविड़ संस्कृति । इनमें से द्रविड़ संस्कृति का प्रसार तो दक्षिण भारत में रहा और इन द्रविड़ों की अपनी स्वतंत्र भाषाएँ हैं। यों तो श्रमण व वैदिक संस्कृति का उधर भी प्रचार रहा ही है पर उत्तर भारत तो इन दोनों संस्कृतियों की भूमि रहा है। विदेशों के संपर्क से उनकी संस्कृति का भी भारत पर प्रभाव पड़ा । उनके हजारों शब्द और अनेक रीति-रिवाज भारतीय जनजीवन में घुल-मिल से गए। इसलिये आज के युग में कोशकार का दायित्व वहुत बढ़ जाता है। उसका अध्ययन अत्यंत विशाल और विश्वसाहित्य का विशाल भंडार उसके लिये सुलभ होना चाहिए। आयु बहुत सीमित और यह कार्य विशाल होने से चिरकालापेक्षित है। किसी एक ही व्यक्ति का अध्ययन और चिंतन एकांगी या सीमित ही हो सकता है अतः कई विद्वानों का सामूहिक प्रयत्न वर्षों तक चालू रहे तभी इच्छित फल प्राप्त हो सकता है। प्राप्य हैं । वीकानेर के ठाकुर रामसिंह, स्वर्गीय सूर्यकरण पारीक और नरोत्तमदास स्वामी विदत्रयी का ध्यान उस ढोलामारू रा दूहा के महत्व की ओर गया और उन्होंने सन् १९३१ में इसका सुसंपादित संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित कराया। जैसा कि डा० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है-"वस्तुतः इतने परिश्रम और योग्यता के साथ हिन्दी की कम ही रचनाओं का संपादन और अर्थ-स्पष्टीकरण हुआ है।" इसके कतिपय दोहों के संबंध में गुप्त जी ने 'संशोधन विषयक कुछ सुझाव नामक लेख ना० प्र० पत्रिका वर्ष ६५ अंक १ में प्रकाशित किया है। यद्यपि उन्होंने इसके लिये काफी श्रम किया है. पर संशोधन की जगह बहुत से शब्दों के अर्थ भ्रमोत्पादक हो गए हैं इसलिये यहाँ उनमें से कुछ शब्दों के अर्थों पर हम विचार करेंगे। स कुछ राजस्थान में प्राचीन साहित्य अधिक सुरक्षित रहा है। विशेषतः जैन मंडारों में आदिकालीन राजस्थानी रचनाओं की अनेकों प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती है। प्राचीन लोकगाथाओं या कथाओं पर जैन विद्वानों ने बहुत-सी रचनाएं की हैं । 'ढोलामारू रा दूहा' प्राचीन राजस्थानी लोकगाथा है जो पहले दोहों में किसी जैनेतर कवि ने गुंफित की थी। जैन कवि कुशललाम ने अपनी 'ढोला मारू की चौपाई' में 'दूहा घणा पुराणा अछइ चौपई बंध कियो मैं पछई. द्वारा उन प्राचीन दोहों का उल्लेख किया है। उन प्राचीन दोहों की पचासों हस्तलिखित प्रतियाँ राजस्थान के जैनेतर ग्रथ-संग्रहालयों में १. जिम जिम मन अमले किअइ तार चढती जाइ। तिम तिम मारवणी-तणइ तन तरणापउ थाइ ।।१२. डा० गुप्त ने 'तार चढंती जाई' के अर्थ के संबंध में लिखा है कि "चढती" क्रिया स्त्रीलिंग की है। अर्थ कदाचित् होना चाहिए तारकमाला चढ़ती जाती थी' अर्थात् उसके नक्षत्र अपने उच्च स्थानों पर होते जाते थे", पर वास्तव में 'तार' का अर्थ यहाँ 'तारकमाला' नहीं. तरंग है। राजस्थान में तार इसी अर्थ में आज भी प्रयुक्त है। इससे पूर्व अमले कियइ' शब्द से एसका सीधा संबन्ध है। यहाँ 'अमल' शब्द अफीम के लिये प्रयुक्त हुआ है-अधिकार के लिये नहीं। इसी ग्रंथ के ६२८ वें दोहे में अमल का अर्थ अफीम ही किया गया है और वही अर्थ यहाँ भी होना चाहिए । सामंती युग में राजस्थान में अमल अर्थात् अफीम का प्रचार बहुत ही अधिक था। युद्धादि के समय अफीम गाला जाता था और पिया जाता था। राजपूतों में तो विशिष्ट मनुहार इसी की होती थी। अतः इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार का होना चाहिए-अमल [७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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