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का नशा करने पर ज्यों ज्यों मन में तार-तरंगें चढ़ती जाती हैं। यहाँ तार शब्द का अर्थ तरंग या लहरें ही है। आज भी 'अमल रै तार में बकै है' इत्यादि कहा जाता है। तार' या तरंगें स्त्रीलिंग 'चढ़ती' के साथ प्रयुक्त होना यहाँ उपयुक्त ही है। २. बाबहिया तर' पंखिया तइँ किउँ दीन्ही लोर ।
मई जाण्यउ पिउ आवियउ ससहर चंद चकोर । ३२
यहाँ 'तर' का अर्थ 'गहरे रंग का पर आपत्ति करते हुए. पपीहे का रंग लाल होता है और ४५१वें दोहे में 'रत्तड़ा बिबीह एवं ३४वें दोहे में 'रत-पंखिया' होने के कारण यहाँ भी तर की जगह पाठ रत और अर्थ रत्त-लाल होना चाहिए, ऐसी संभावना की है। पर तर शब्द गहरे रंग के अर्थ में आज भी प्रयुक्त है. भले ही वह हरा रंग न होकर लाल रंग आदि हो. जैसे गुलाबी रंग में हल्का गुलाबी और तर गुलाबी । वैसे 'तर' शब्द 'तरु' के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है और तब इसका अर्थ होगा 'तर-पक्षी' अर्थात् पेड़ का पक्षी।
गृहस्थी जमाई है और मुझे उसने मन से विस्मृत कर छोड़ दिया है" बतलाया है। पर यह अर्थ सर्वथा गलत
और हास्यास्पद है। ढोला नरवर का अधिवासी था, अतः दिल्ली में घर करने का अर्थ नहीं जंचता। 'ढीली' का अर्थ 'शिथिल', सर्वथा ठीक है और हर शब्द का प्रयोग राजस्थान । में 'प्रेमस्मृति' के लिये प्रसिद्ध है अतः 'ढोलामारू रा दूहा' के संपादकों ने प्रेम को शिथिल कर दिया जो अर्थ दिया है वही सही है। गुप्त जी ने 'ढीली' स्त्रीलिंग सकर्मक क्रिया के 'स्मर' पुलिंग कर्म के साथ लगने में आपत्ति उठाई है। पर हर' देशी शब्द है और उसका अर्थ 'प्रेम-स्मृति' या 'ओलू होता है जिसका स्त्रीलिंग ढीली के साथ भी प्रयोग आपत्तिजनक नहीं है।
५. ढोला 'ढीली हर मुझ' दीठउ घणे जणेह ।
चोल-बरन्ने कप्पड़े सावर धन अणेह ||१३९
३. ढाढी गुणी बोलाविया राका तिणही ताल ।
नरवर गढ ढोलइ-कन्हइ जावउ 'वागरवाल' ||१०५
इस दोहे का अर्थ 'ढोलामारू र दूहा' के संपादकों ने 'मेरी प्रेम स्मृति को शिथिल कर' किया है। किंतु गुप्तजी ने न जाने कहाँ से 'मुझ' का मुझे कर दिया
और उसका अर्थ 'मेरी' की जगह 'मुझको कर दिया है। दोहा नं० १३८ की भाँति 'ढोली हर' का अर्थ 'दिल्ली में घर' न कर यहाँ 'ढोली हर' स्पष्ट ही ढीली धरा-दिल्ली प्रदेश है लिखा है। उपर्युक्त दोहे की भाँति इस दोहे का अर्थ भी संपादकों ने ठीक किया था पर गुप्तजी ने गलत अर्थकल्पना की है।
इस दोहे की संख्या १०६ लिखकर गुप्त जी ने आलोचना की है पर दोहा नं० १०५ ही है। अतः मुद्रण दोष होना संभव है। इसमें गुप्त जी ने 'वागरवाल' का अर्थ वागड़' प्रदेश का निवासी बतलाया है। पर वागड़ का प्रयोग कहीं भी राजस्थानी में वागर नहीं मिलता। ४. ढोला 'ढीली हर किया मुक्या मनह विसारि ।
संदेसउ इन पाठवइ जीवां किसइअधारि ।।१३८
"यहाँ 'ढीली' और 'हर' स्पष्ट ही क्रमशः 'दिल्ली' और सं० 'गृह' है" लिखकर गुप्तजी ने प्रथम चरण का आशय "ढोला ने दिल्ली में घर किया है-विवाह कर
६. बीजुलियाँ 'जालउमिल्याँ' ढोला हूँ न सहेसि । जउ आसादि न आवियउ सावण चमकि मरेसि ।।१५१
गुप्तजी ने 'जालउ मिल्याँ' को 'जाल उमिल्यो' करके उमिल्ल < उन्मील=प्रकाशमान, उल्लसित अर्थ दिया है पर हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती ! जालउ शब्द ज्वाला के लिये प्रयुक्त हो सकता है और तब उसका अर्थ होगा - "यदि तुम आषाढ़ में न आए
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