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________________ तो विद्युत् ज्वाला के प्रकाशमान होने पर हे ढोला. वह मैं नहीं सह सकूगी और श्रावण में ( उस बिजली की चमक से) चौंक कर मर जाऊँगी।" जोडणीकोश के पृ० ८९० पर महेराण (डि० महेराण) सं० महार्णव-समुद्र लिखा है। ९. अति घण ऊनिमि आवियउ 'झाझी रिठि' झड़वाइ । बग ही भला त बप्पड़ा धरणि न मुक्का पाइ ।। २५७ ७. वीजुलियाँ 'पारोकियाँ नीठ ज नोगमियाँह । अजइ न सज्जन बाहुड़े वलि पाछीवलियाँह ।। १५३ यहाँ गुप्तजी ने 'पारोकियों' का अर्थ 'परकीया न.यिकाओं की भाँति' को असंभव बतल ते हुए 'परोक्ष हुई और कठिनता से गई लिखा है। पर परोक्ष होना और निर्गमन करना दोनों एक ही अर्थ के द्योतक हैं जिसे स्वीकार करने पर दोहे में पुनरुक्तिदोष आ जाता है पर संपादकों का उपर्युक्त अर्थ आलंकारिक होने के साथ-साथ राजस्थानी भाषा-पद्धति से भी विपरीत नहीं इस दोहे के दूसरे पद का अर्थ 'अत्यंत शीत झड़ी की वायु चल रही है' लिखा हुआ है, जिसकी व्युत्पत्ति पर आपत्ति करते हुए गुप्तजी ने 'झाझी' [ झंझ-क्लेश ] = क्लेशपूर्ण तथा 'रिठि' रिष्टि= तलवार] से "झड़ीवाली वायु कष्टप्रद तलवार [ जैसी ] हो रही है" लिखा है। पर झाझी शब्द गुजरात और राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसका अर्थ अत्यंत व बहुत के रूप में व्यवहृत होता है। जोडणी कोश में झाझं का अर्थ ज्यादा व पुष्कल लिखा है यही अर्थ गुजराती-इंगलिश डिक्शनरी में ( मोर, ग्रेटर ) किया गया है। एवं 'रिठि' का अर्थ अधिक शीत का पर्यायवाची है। अधिक ठंड पड़ने पर कहते हैं—'सी कई पडै रिठ्ठ पड़े हैं। अतः संपादकों का अर्थ . ठीक लगता है। जाता। ८. मन सींचाणउ जइ हुवइ. पाँखाँ हुवइ त प्राण । जाइ मिलीजइ साजणाँ डोहीजइ 'महिराँण || २११ इस दोहे के 'महिराँण' शब्द का अर्थ महारण्य और उसकी व्युत्पत्ति संस्कृत महार्णव से संपादकों ने बतलाई है। पर गुप्तजी ने दोनों को संभव न मानते हुए "वह तो मही+राण है. यह राण है< प्रा० रण< सं० अरण्य" लिखा है, पर यहाँ पाठ के 'महि' को 'मही' कर दिया है जिसका कोई कारण नहीं बतलाया। आगे फिर अर्थ अरण्य कर दिया है जो संपादकों ने लिखा ही था फिर उसे संभव नहीं लिखना कहाँ तक ठीक है? मही+राण का अर्थ स्पष्ट नहीं किया। १०. वीछुड़तां ई सज्जणाँ राता किया रतन्न । वाराँ विहुँ चिहुँ नांखीया आँसू मोती-व्रन्न ।। ३६९ इसके तृतीय चरण का अर्थ संपदकों ने 'दिन रात लगातार गिराए' किया था। गुप्तजी ने दोनों दिन मैंने चारों ( ओर ) गिराये किया है। यहाँ 'दिन' और 'ओर' शब्द अपनी तरफ से लगाने की आवश्यकता नहीं थी। यदि वाराँ शब्द का अर्थ दिन' और ओर किया हो तो सर्वथा असंगत है क्योंकि दो दिन चारों ओर आँसू गिराने का कोई अर्थ नहीं। हमारी राय में यहाँ वारों का अर्थ कुएं से पानी निकालने का 'वारा होना चाहिए जो कि राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। यह झोलीनुमा बड़ा-सा डोल होता है । मुहावरा भी प्रसिद्ध है कि आख्यांसु आँसू रा वारा रा वारा नाँदै है अतः इसका अर्थ होना चाहिए-नेत्र-कूप से मोती-वरणे अश्रुओं के दो चार वारे गिराए । महिरोंण राजस्थानी और गुजराती साहित्य में अति प्रसिद्ध शब्द है और उसे कोशकारों और विद्वानों ने महार्णव से ही व्युत्पन्न माना है। प्राचीन फागुसंग्रह पृ० २७६ पर महिराण पु० महासागर ३२-९ [सं० महार्णव 'सर० गुज० महेराण, महेरामण ] लिखा है तथा गुजराती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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