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११. सज्जणियाँ वउलाइ का मंदिर बइठी आइ ।
मंदिर कालउ नागजिउँ 'हेलउ दे दे खाइ' ।। ३७१
होगा-भरे हुए कटोरे के उलट जाने की तरह नेत्र (उभर कर आँसू ) छलक.ने लगे।
१३. बर मेहाँ पवनाहँ ज्यउँ करह उडंदउ जाइ ।
पूगल जाइ प्रगडउ करइ मारवणि दाइ ॥ ३८७
'हेलउ दे दें' का अर्थ संपदकों ने 'पुकार पुकार कर' किया था पर गुप्तजी, "हेला का अर्थ अनादर, उपेक्षा होता है। इसलिए 'हेलउ दे दें' का अर्थ होगा अनादर या उपेक्षा करते हुए" लिखते हैं। पर महल क्या अनादर-उपेक्षा करेगा? और काला नाग भी, जिसकी यहाँ उपमा है. उपेक्षा से नहीं काटता, क्रोध से काटता है। अतः यहाँ हेला शब्द का अर्थ पुकारना ही होगा जो राजस्थान में अत्यधिक प्रयुक्त होता है। यहाँ कवि का अभिप्राय है-प्रियतमा के चले जाने पर सूने महल की प्रतिध्वनि का गुंजार ऐसा लगता है मानो काला नाग पुकार-पुकार कर खाने को उद्यत हो।
न मालूम क्यों गुप्तजी ने इस दोहे के 'उडदउ' शब्द को 'उदंडउ' लिखकर एक गंभीर भूल की है। संपादकों ने जैसा कि उन्होंने लिखा है 'उदंडां' का अर्थ 'उड़ता हुआ किया है पर मूल पाठ में 'उडंदउ' है और उसका अर्थ उड़ता हुआ करना सर्वथा उपयुक्त ही है। गुप्तजी ने भ्रांतिवश पाठ 'उदंड' को "किंतु यह प्रगट ही उद्दड है". बतलाया है। 'उडतउ' या 'उडंदउ' राजस्थानी उच्चारण का भेद है-करंत करंदा, लहंता लहंदा आदि उच्चारण उत्तर राजस्थानी और पंजाब में पर्याप्त प्रचलित हैं।
१२. सज्जणिया ववलाइ कइ गउखे चढी लहक्क ।
भरिया नयण कटोर ज्यउँ, मुँधा हुई 'डहक्क' ॥३७२
१४. करहा इण 'कुलि गाँमडइकिहाँ स नागरवेलि ।
करि कइराँ' ही पारणउ अइ दिन यू ही ठेलि ।। ४३०
यहाँ संपादकों ने 'कुलि गाँमड़ई का अर्थ छोटा-सा गाँव किया है। राजस्थानी में कहावत 'कुल गाँव में इरंडियो ई रूख' (सं० निरस्तपादपेदेशे एरण्डोपिद्र मायते ) प्रसिद्ध हैं। इसमें छोटे से गाँव से ही राजस्थानी कहावत का अभिप्राय है। गुप्तजी ने कुलिगाम < प्रा० कुडयगाम < सं० कुटजग्राम-झोपड़ियों का गाँव, बतलाया है. यह व्युत्पत्ति विचारणीय है। दोनों का आशय एक हो है।
इस दोहे के 'डहक्क' शब्द का अर्थ संपादकों ने बिलखना किया है, पर : गुप्तजी उसे अनुमानिक अर्थ बतलाते हैं, किंतु बात ऐसी नहीं है। प्रामाणिक हिंदी कोश में भी डहकने का अर्थ बिलखना, विलाप करना, दहाड़ मारना पाया जाता है और मुँधा हुई डहक्क पूरे वाक्य पर विचार करने से गुप्तजी ने जो हुई डहक्क का अर्थ 'दग्ध हुई किया है वह समीचीन नहीं लगता। दोहा सं० ४७६ में भी डहक शब्द आता है. वहाँ 'दग्ध' अर्थ की किसी तरह संगति नहीं बैठती। संभव है इसीलिये उपयुक्त दोहे की आलोचना करते हुए आगे गुप्तजी ने 'डहक्क' को 'हडक्क' लिखकर उसकी कोई आलोचना नहीं की है। हमारे ख्याल से मुंधा शब्द का अर्थ यहाँ मुग्धा न होकर ऊंधा ( उलटा) होगा। राजस्थान में आज भी यह शब्द इसी अर्थ में पर्याप्त प्रचलित है। डहकने का अर्थ गुजरातो जोडणी कोश में उभरना या छलकना किया गया है। इन दोनों शब्दों के इन अर्थों के प्रकाश में इस पंक्ति का अर्थ
तीसरे चरण में कह" शब्द के करीर अर्थ पर आपत्ति करते हुए "कहर (सं० कदर नाम का वृक्ष) जिसे श्वेत खदिर भी कहा जाता है तथा सं० करीर, प्रा० करील ही हो गया है 'कहर' नहीं" लिखा है। पर राजस्थान में कैर का वृक्ष बहुतायत से होता है। कवि बद्रीदान जी ने 'कैरसतसई बनाई है जिसमें ७०० दोहे कैर वृक्ष पर लिखे हैं। प्रा० कयर पुं० [क्रकर ] १. वृक्ष विशेष करीर, करील : (सं० २५६)। २. करीर
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