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________________ का फल ( पभा० १४ ) - पाइयसद्द महाण्णवो', पृ० २८४ । कयर कइर में कोई अंतर नहीं व्रजभूमि में भी कैर ( करीर ) वृक्ष होता है यथा-"कोटिन हूँ कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारों" ( रसखान ) । अतः खदीर वृक्ष गुप्तजी की कल्पना मात्र है। इसी पाइयसद्द महाण्णवों के पृ० ३३७ में सहर को खदिर वृक्ष बतलाया है जो कहर वृक्ष से अलग है। १५. सुणि ढोला करहउ कहइ, मो मनि मोटी आस । "करों" कंपल नवि चरू, लंघण पड़ई पचास ॥ ४३१ इस दोहे के अर्थ में भी गुप्तजी ने कइर को कदर वृक्ष बतलाते हुए उपर्युक्त दोहे के विवेचन में "करीर में ऐसी कँपलें होती भी नहीं जिन्हें ऊँट चर सकें" लिखकर नई आपत्ति उठाई है पर कैर वृक्ष में कू पलें, फूल, 'वाटा' तथा 'कैर', फल आदि सभी होते हैं। ऊँट कैर को खाता है। राजस्थान में कहावत प्रसिद्ध है कि 'ऊँट छोडे आक, बकरी छोड़े ढाक' | १६. ढोलह करइ विमासियउ देखे बीस वसाल ऊँचे थलइ ज एकलो. 'वच्चालइ' एवाल ॥ ४३५ यहाँ 'वचाल' शब्द का अर्थ संपादकों ने 'बीच में किया है। राजस्थानी में आज भी इसके 'विचाले' रूप का प्रयोग इसी अर्थ में पर्याप्त प्रचलित है। गुप्तजी इसे वच, धातु से वच्चालइ = 'कहा' लिखते हैं, पर यह कष्ट कल्पना और अव्यावहारिक है। अब तक कहीं यह शब्द कहा' के अर्थ में प्रयुक्त नहीं देखा गया है। १७. दुरजण केरा बोलड़ा मत 'पाँतरजउ' कोय । अगती हंती कलइ खगझी साच न होय ॥ ४४६ इस दोहे के 'पतिरजउ' का अथ" "धोखा साना किया गया है जो 'प्रतारणा से व्युत्पन्न होना संभव है। गुप्तजी "प्रा० पत्तिज्ज < सं० प्रति + इ ( विश्वास करना, प्रतीति करना) से बना हुआ ज्ञात होता है" लिखते हैं। पर Jain Education International यह कष्ट कल्पन' है। धोखा न खाना या प्रतीति न करना दोनों का फलितार्थ तो एक ही है । १८. आदीता हूँ ऊजलो, मारवणी मुख व्रन्न । झीणां कप्पड़ पहिरणइ 'जॉणि सह' सोवन्न ॥४६३ - . यहाँ 'झखड़' का अर्थ संपादकों ने झलक रहा है किया है पर गुप्तजी ने "प्रा० झख का अर्थ 'संतप्त होना है अतः 'जानि झसइ सोवन्न का अर्थ हांगा 'मानो सोना तप रहा हो लिखा है। पर झाँखना क्रिया प्रसिद्ध है और जैसे झरोखे में से झाँकते हैं उसी प्रकार झीने वस्त्रों में से स्वर्णवर्णी देह झाँकती है या झलकती है, अर्थ समीचीन है। प्रामाणिक हिंदी कोश आदि से मी आड़ में से झुककर देखने का अर्थ समर्थित है। झीने वस्त्रों में से 'मानो सोना तप रहा हो' लिखना कोई अथ नहीं रखता। १९. दोहा ४६४ में 'झाँस' शब्द आया है जिसके लिये गुप्तजी ने दोहा सं० ४६३ का विवेचन देखने की सूचना की है अतः यहाँ भी उपर्युक्त दोहे का विवेचन देखना चाहिए। २०. डींभू लंक. मरालि गय, पिक-सर एही वाँणि । ढोला यही मारुई, जेह 'हंझ निर्वाणि ॥ ४६० For Private & Personal Use Only इस दोहे में 'हंझ निवणि' का अर्थ संपादकों ने 'सरोवर में स्थित हंस किया है जिसपर आपत्ति करते हुए गुप्तजी हंझ ८ कन्या व निर्वाण'परम सुख' से 'निर्वाण कन्या' अथ होना चाहिए लिखते हैं, पर हमें यह अर्थ असंगत लगता है। निर्वाण मोक्ष को कहते हैं राजस्थानी में निर्वाण नीचे स्थान के लिये प्रयुक्त होता है। 'नीर निवणे-धरम ठिकाणै' कहावत प्रचलित है कविवर समयसुंदर जिनसिंह सूरि चौमासा गीत में भाद्रव मास के वर्णन में लिखते हैं 'भलइ आयउ भाइबउ' नीर भरया नीवाणो जी यहाँ निवाण का अथ [ ११ www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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