SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जलाशय स्पष्ट है। अतः संपादकों का अथ अधिक ठीक लगता है। यह शब्द इसी अर्थ में राजस्थान में पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसी ग्रथ के पृ० ५२९ पर 'प्रेयसी से रंग करो न।' एवं पृष्ठ ६१५ (शब्दकोश) पर 'उपभोग करो न!' स्पष्ट लिखा है। गुप्तजी ने 'रंग कर। न' शब्द को सर्वथा कल्पित बतलाया है पर राजस्थान के लोकगीत आदि में . रंग माणना शब्द 'भोगने के अर्थ में सर्वविदित है। २१. उरि गयवर नइ पग भमर, हालंती गय हंझ'। __ मारू पारेवाह ज्यू, अंसी रत्ता मंझ ॥ ४७४ इस दोहे में हालंतो गय हंझ' के अर्थ 'हंस की चाल से चलती हैं पर आपत्ति दर्शाते हुए गुप्तजी 'गय हंझ' का अर्थ 'गजकन्या होना चाहिए' बतलाते हैं पर इसके लिये उपर्युक्त दोहा सं०४६० देखना चाहिए । २४. दंत जिसा दाड़म-'कुली' सीस फूल सिणगार । काने कुंडल मलहलइ कंठ टैंकावल हार ।। ४८० २२. कसतूरी कडि केवड़ो, 'मसकत' जाय महक । मारू दाड़म फूल जिम, दिन दिन नवी डहक्क ॥४७६ यहाँ संपादकों के किए हुए 'महक उड़ती जा रही हो अर्थ को निराधार बतलाते हुए गुप्त जी ने जाय को जाती-पुष्प और मसकत शब्द के लिये"किसी विदेशी पुष्प का नाम लगता है. जो कभी 'मसकत' नाम के नगर से इस देश में आया हुआ होगा" की निराधार कल्पना की है। जाय का अर्थ जाही पुष्प होना असंभव नहीं पर यहाँ 'मसकत' शब्द मस्तक का विपर्यय लगता है क्योंकि राजस्थानी बोलचाल में ऐसा विपर्यय व्यवहृत है। अतः 'उसके मस्तक से उपर्युक्त फूलों की सौरभ उड़ रही थी' के भाव से लिखा जाना संभव है। गुप्तजी ने लिखा है कि "कुली का अर्थ कली किया गया है ( पृ० १५८)" पर वास्तव में कली' अर्थ किया ही नहीं, कुली का अर्थ 'दाना' किया है जिसे गुप्तज. ने दाडिम बीज लिखा है अतः सपादकों की कोई गलती नहीं है। गुप्तजी ने न मालूम कहाँ से कली शब्द लिखकर आलोचना की है। आगे वे 'कुली' का अर्थ 'कुल का है' करते हैं, अतः चरण के पूर्वार्द्ध का अर्थ होगा, 'उसके दाँत मानों दाडिमकुल के हैं' पर दाडिमकुल का क्या आशय है ? दाडिम कुली से जो उपमा दी जाती है वह दाडिम के दानों ( बीजों) से ही संबंधित है। २५. डेडरिया खिण-मइ हुवइ. घण बूठइ'सरजित्त' ।।५४८ २३. ढोला. सायधण 'माँणने झीणी पाँसलियाँह । कइ लामे हर पूजियाँ. हेमाले गलियाँह ।। ४७७ इस दोहे के 'माँणने' शब्द के अर्थ पर आपत्ति करते हुए गुप्तजी ने लिखा है कि संपादकों ने 'माणने' का अर्थ बड़ी किया है पर वास्तव में उन्होंने 'माणने' का अर्थ बड़ी नहीं किया है। उन्होंने तो 'झीणी पाँसलियाँह का अर्थ 'पंसुलियाँ बड़ी सुकुमार है'. किया है और माँणने का अर्थ रंग (प्रेम) करने के लिये किया है। यहाँ 'सरजित' शब्द का अर्थ संजीवित किया गया है, किन्तु गुप्तजी लिखते हैं-"किंतु यह स्पष्ट ही < सं० सर्जित ( = बनाया हुआ) है।'' यह वास्तव में गलत है। राजस्थान में संजीवन को सरजीवण कहते हैं जिसकी भूतकालिक क्रिया सरजित्त का यहां प्रयोग हुआ है। मेंढक के लिये तो यह प्रसिद्ध ही है कि यदि उसके शरीर को चूर्ण करके बरसाती पानी में डाल दिया जाय तो वह पुनर्जीवित हो उठता है। वर्षा के अभाव में जो मर जाते हैं वे वर्षा होते ही संजीवित हो जाते हैं। मेंढक बनाए या सर्जित किए नहीं जाते. बल्कि वर्षा में अपने आप संजीवित हो उठते हैं । १२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy