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भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः, तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याताः, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।
एक वरदान है, निराशामय अभिशाप नहीं, क्योंकि ये स्रष्टा के शोधक हैं तथा नवीन सर्जन के कारण और कार्य दोनों ही हैं। मध्यदेशीय संस्कृति के संरक्षण, पोषण में किसी प्रकार की बाधा इन्हें प्रिय नहीं हुई है। जब कभी किसी प्रकार का आक्षेप आया है, बीकानेर की दृष्टि इस व्यस्त नगरी की ओर उठी है और संकेत मात्र ने भंवरलालजी के रोम-रोम को जागृत किया है । इतिहास जागृत हुआ है. लिपि नवीन हुई है. विचार व्यवस्थित हुए हैं। विद्वत्-समाज कृतार्थ हुआ है । तात्पर्य यह कि अगरचन्द के भंवर, अगर के सुगंध का आभासमात्र पाकर गुनगुनाने लगे हैं। भंवरलालजी पराग के प्रेमी हैं। इनका स्रोत बीकानेर के पुष्पराज श्री अगरचन्द हैं, इनमें दो मत नहीं हो सकते । काका और भतीजे की यही दैवी-शक्ति इनके वाङ्मय की सृष्टि करती रही है। ऐसा ही हुआ है और इसी वातावरण ने इनके एक पृथक् व्यक्तित्व का निर्माण किया है। देश, काल, परिस्थिति और वातावरण प्रायः अपना सभी अलग अस्तित्व रखते हैं पर जगत् की गति में वे सामूहिक योगदान देते हैं। राजस्थान, बंगाल, आसाम, मणिपुर आदि पूर्व से लेकर पश्चिम पर्यन्त तथा हम्पी से लेकर आबू पर्वत तथा दक्षिणी व पश्चिमी प्रान्तों के धार्मिक व साहित्यिक संस्थान इनके विचार-बिन्दुओं के अविरल प्रवाह में अपने पद-चिह छोड़ते गये हैं। गणमान्य विद्वानों के सामयिक सहयोग, सम्पर्क व साहचर्य ने इन्हें समुत्सुक किया है. कर्तव्य की प्रेरणा दी है. अध्ययन की विधा दी है । जो विद्वान् आपके सम्पर्क व सान्निध्य में आये हैं पाठक स्वयं विचार करेंगे कि इस मनीषी का अक्षर-ज्ञान कितना अ-क्षर होता गया होगा। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजय के आप कृपापात्र हैं। मुनि कान्तिसागरजी का कर्मठ जीवन इन्हें दुलार दे सका है। त्रिपिटकाचार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन इनके निकट सम्पर्क में रहे हैं। ओरियन्टल लैंग्वेजेज के प्रसिद्ध विद्वान डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी. डॉ० सुकुनार सेन, डॉ० गौरीशंकर ओझा जैसे भाषा-शास्त्री लिपि विशेषज्ञों का सान्निध्य आपको सम्बल देता रहा है। प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम के डायरेक्टर डॉ० मोतीचन्द आपके मित्रों में हैं। प्रसिद्ध विद्वान डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल से आपका सम्बन्ध एक अविदित कहानी बन गया है। प्रसंगवश उसका उल्लेख किया जायेगा। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् व आलोचक डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी. डॉ० दशरथ शर्मा तथा अन्य समसामयिक मनीषी-वर्ग का स्नेह व सौहार्द आपको अनायास उपलब्ध होता आया है। अब हम अनुमान कर सकते हैं कि प्राइमरी शिक्षा समाप्त करने वाला यह भारतीय चिन्तक कितना शिक्षित. दीक्षित व प्रामाणिक ज्ञान का स्वाध्यायी धनी है और इस धन की धरोहर का उद्गम स्थान कहाँ है ? प्रकाशित पुस्तकों की भूमिका में अंकित विद्वानों की सम्मतियाँ उक्त कथन की साक्षी हैं। स्थान विशेषपर इनकी चर्चा पाठकों को इस विषय की प्रतीति दे सकेगी। विश्वास है प्रसंगात आपके लिपि ज्ञान के बारे में डा० सुनीति कुमार चटर्जी के उद्गार पर्याप्त होंगे। महानुभावी संप्रदाय का एक ग्रन्थ है "पावापाठ"। ग्रन्थ प्राचीन नहीं. प्रत्युत ३०० वर्ष पहले की कृति है। ग्रन्थ मराठी में लिखा गया है पर लिपि उसको सांकेतिक है। अगरचंदजी ने उस पुस्तक को देश के जानेमाने विद्वानों के पास पढ़ने तथा उसका अर्थ करने सानुरोध भेजा था पर पुस्तक वेरंग वापस लौट आयी। अब बीकानेर की प्रतिभाने कलकत्ता स्थित अपनी शक्तिका स्मरण किया। भंवरलालजी ने लिपि की एक वर्गमाला तैयार की और ग्रन्थ आद्योपान्त पद डाला। आवश्यकता हुई कि वैज्ञानिक पद्धति पर लिपि विज्ञान के मार्गदर्शक, भाषावैज्ञानिकों द्वारा अपने पठन
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