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________________ फलतः पुरातात्त्विक अनुसंधान की ओर अग्रसर होने में आपका लिंग्विस्टिक एप्रोच पर्याप्त सहायक हुआ है। न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ जो विशिष्ट विद्वानों से लौटकर आयीं, बीकानेर के अपने संग्रहालय में उपस्थित हैं। अनुसंधान और शोध हेतु अनेकानेक दुर्लभ चित्रकलाओं के नमूने, वास्तु व मूर्तिकला की प्रामाणिक प्रतिमाएँ, अमूल्य प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ आपने संग्रह की हैं, देखने मात्र से इस नर-रत्न की प्रकृति का परिचय प्राप्त हो जाता है। पुरातत्त्व व नृतत्त्व-विज्ञान के अतिरिक्त इतिहास-शोधन की प्रकृति ने भी आपका झुकाव शिला. लेखों की ओर उन्मुख किया है। प्रायः सभी शिलालेखों की, चाहे प्राचीनतम् ही क्यों न हों, लिपि पढ़ने व उसका उचित अर्थ लगाने में आपको किंचित् मात्र भी कठिनाई नहीं पड़ती। अतीत के गर्भ में मानव अजित ज्ञान की संचित राशि को ढूंढ़ कर बाहर निकालने में आपने जो समय-समय पर सहायता की है. वह स्तुत्य है। प्राचीन संस्कृति व सभ्यता के विस्त तथ्यों के संग्रह करने की इनकी प्रबल आकांक्षा ने इन्हें गहन अध्ययन की अभिरुचि प्रदान की है। राजनीतिज्ञ, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों की समाजशास्त्रीय विश्लेषणात्मक चिन्तन-धाराने ही आपके अतीत और वर्तमान के बीच सामंजस्य-संस्थापन में योगदान किया है । पाठक लोग जिज्ञासु अवश्य होंगे कि आखिर इस अपरिचित ज्ञान के उपजीव्य स्रोत क्या हैं? आपकी बहुज्ञता व तथ्य-संग्रहकारिणी प्रवृत्ति के मूल स्रोत क्या हैं ? प्रश्न स्वाभाविक होगा। निश्चय ही व्यक्तित्व व्यक्तिगत और वातावरण की शक्ति के संतुलन का परिणाम होता है। वस्तुतः भंवरलालजी पितृव्य श्री अगरचन्दजी के आग्रह के परिणाम हैं। उनके आज्ञापालन की उत्कट अभिलाषा के क्रियान्वयन में अपनी शक्ति का उपयोग कर आपने अपना स्वतःनिर्माण किया है। जिज्ञासा उनकी, कार्य इनका | विचार उनके और लेखनी इनकी । भावना उनकी और प्रतीति इनको। इसप्रकार भक्ति. श्रद्धा, विनरा, आज्ञाकारिता तथा अपनी स्वाभाविक रुचि की सम्मिलित-साधना के परिणामस्वरूप श्री भंवरलालजी व श्री अगरचन्दजी ज्ञान की अभीष्ट प्यास के सरोवर बनते गये हैं । विषयवस्तु के भावपक्ष के जिज्ञासु काकाजी के कलापक्ष और कभी भावपक्ष के रूप में. आपने कला की साकार प्रतिमा का निर्माण अपनी अनवरत लेखनी से किया है। कहते हैं वेदव्यासजी की अभिव्यक्ति को लि.पबद्ध करने की शक्ति किसी देव. शक्ति को नहीं हुई। केवल गणेशजी ने यह भार ग्रहण किया। लेकिन गणेशजी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि आप (वेदव्यासजी) कहीं रुकेंगे तो उनकी लेखनी भी बंद हो जाएगी। वेदव्यासजी ने हाँ भर ली। उन्होंने कुछ श्लोकों के पश्चात् एकाध श्लोक गूढ़ अर्थवाला बोलना प्रारम्भ किया और श्री गणेशजी से मात्र इतना ही कहा कि आप अर्थ समझ कर ही लिखेंगे। गणेशजी गूढार्थ-श्लोकों पर रुक जाते और तब तक कृष्णद्वैपायन श्री वेदव्यास की चिन्तनधारा नवीन श्लोकों का निर्माण कर लेती। यह क्रम चलता रहा और एक अद्भुत वाङ्मय का निर्माण होता रहा । कथा के अंश में कितनी सत्यता है. आजका वैज्ञानिक व्यक्ति शायद न समझ पाये पर फलितार्थ समझने में वह भी भूल नहीं करेगा कि दोनों महान् थे, दोनों में ही दैवी शक्तियाँ थीं। यहां भी भावपक्ष जितना अभिव्यक्ति के लिये व्याकुल है तो कलापक्ष भी उतना ही आतुर | दोनों की इन्टेन्शिटी समान है और तभी सवाङ मय की सृष्टि सम्भव हो सकी है। राजस्थान के ये दो सजग प्रहरी कला, ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता, संस्कृति, धर्म, नीति और व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के मूल्यों की खोज में सतत् व्यस्त रहे हैं। यह तृष्णा बुरी नहीं है। ये अध्यवसायी, स्वाध्यायी, कालक्षेप के प्रमाद से रहित हैं। इनके समक्ष : ६२ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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