________________
विवाद उठ खड़ा हुआ है । कन्हैयालालजी सरावगी की इस विषय में एक पुस्तक मुझे भी पढ़ने को मिली थी। मैंने भवरलालजी से प्रश्न किया था कि आपको इस विषय में क्या सम्मति है? आपने स्पष्ट उत्तर दिया-"भाई भगवान महावीर की २५००वीं जयंती मनाने का भारत सरकार ने निश्चय किया है। युगपुरुष एकदेशीय नहीं होते. उनका आदेश समस्त संसार के लिए होता है। उनके जन्न और निर्वाण के स्थान के निर्णय. विशुद्ध ऐति. हासिक व पुरातात्त्विक प्रश्न हैं। इस पर एकान्तिक विचार करना किसी भी सम्प्रदाय के लिये उचित नहीं। मेरा तो अपना ख्याल है कि हजारों वर्षों से लोक-श्रद्धा मध्यम पावा, जो बिहार प्रान्त में स्थित है. को ही प्रभु का प्रयाणस्थल समझकर अपनी भक्ति प्रकट करती आ रही है। इसलिए राजनैतिक या निहित स्वार्थ में लिप्त कुछेक वर्ग या सम्प्रदाय की तात्त्विक व्याख्या सामयिक लाभ के लिये ही है। विदेशो विद्वानों ने प्रायः बौद्ध त्रिपिटकों ही को अपने इतिहास-लेखन में सहायक माना है। जेन-सिद्धान्त व जेनागमों में व्यक्त विचार उन्हें एकांगी नजर आये हैं, फलतः उनका निर्णय स्पष्ट नहीं हो सकता क्योंकि सम्प्रदायगत विद्वेष एक दूसरे को हेय समझने को बाध्य हैं। मेरा अपना विचार है कि यद्यपि लोक-परम्परा लोकाचार के द्वारा बिहार स्थित मध्यम पावा की युगपुरुष की निर्वाणभूमि को अपने विश्वास का केन्द्र मानती आयी है सो हम उस लोक मंगलमयी लोकभावना के समक्ष नत होने को बाध्य हैं. हमारा इतिहास इसके विरूद्ध नहीं है। आपने 'जैन भारती' में एक निबंध लिखकर इस भ्रम को असामयिक, अतात्विक तथा अनैतिहासिक प्रमाणित करने का प्रयास किया है। तात्पर्य यह कि यह मनीषी सत्य और आचार में सामंजस्य का समर्थक है।
भंवरलालजी शिक्षित और दीक्षित दोनों ही हैं। पर शिक्षा, जिस रूप में आधुनिक युग द्वारा प्रमाणित किया । जाता है, मात्र ५वीं क्लास तक की है। इसे हर प्रारंभिक या प्राइमरी एजुकेशन कहा करते हैं। अंग्रेजी में एक मुहावरा है द थी आर्स ( The three R's ): लिखना, पढ़ना और हिसाब-किताब ( रीडिंग, राइटिंग तथा रिथमेटिक ) नितान्त अपर्याप्त । पर प्रतिमा स्कूल, कालेज व युनिवर्सिटियों में निर्मित नहीं होती। वह जन्मजात होती है। इनके तो पेट में ही दाढ़ी थी। पूर्व जन्न के पूत संस्कारों ने इस महान् व्यक्तित्व को देश की समस्त भाषाएँ विस्तृत संसार की मुक्त पाठशाला में सहज में ही, समय और अभ्यास के अभ्यस्त अध्यापकों द्वारा पढ़ा दी हैं । वस्तुतः प्रातिभज्ञान स्वयंभू होते हैं। प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म जिन संस्कारों को जन्म देते हैं वे संचित होते रहते हैं। उसी संचय की सिद्धि एक 'जीनियस' के रूप में प्रगट होती है। कुछ तो संस्कार, कुछ व्यक्तित्व की अभिरूचि और कुछ वातावरण, सभी के पारस्परिक सहयोग को परिणति एक ऐसे विवेक का सृजन करती है, जिसे हम मानसिक शक्ति कहते हैं । यही मानसिक शक्ति प्रतिभा के नाम से जानी जाती है। इसे प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती। यह स्वयंसिद्ध प्रमाणपत्र होती है । संसार की शिक्षण संस्थाएँ इनकी कायल होती है। विद्वत् समाज इनका सम्मान करता है। इसलिए कि प्रतिभा स्वयं शुद्ध-बुद्धज्ञान की अधिष्ठात्री होती है। वह सामाजिक स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखती. प्रत्युत स्वीकार हो स्वयं उसकी योग्यता स्वीकार करने को बाध्य होता है। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, बंगला, गुजराती, राजस्थानी तथा हिन्दी आदि समस्त भाषाओं में पारंगत. प्राचीन, ब्राह्मी, कुटिल आदि युग की भाषाओं की सतत् परिवर्तित लिपियों की वैज्ञानिक वर्णमाला के अदभुत ज्ञान के अभ्यस्त श्री भंवरलालजी की प्रतिभा के कायल, प्रायः इनके सभी अन्तरंग विद्वान् मित्र हैं। मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला तथा ललितकलाओं की आपमें परख है। आपकी अभिरुचि प्रायः भाषाशास्त्र, लिपि-ज्ञान में है ।
[६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org