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________________ की मुक्त अनुभूति के कायल हैं। श्री सहजानन्दजी शुद्ध बुद्ध अनुभूत योग के प्रतीक श्रमग रहे हैं। उनमें धर्मों का, भारतीय दर्शनों की, और भारतीय नैतिक जीवन मूल्यों की अदभुत समन्विति रही है। भँवरलालजी में जो गौरव है, वह गुरु का है. परिवार का है, पूर्वजों का है और है लोकाचार का मर्यादित व स्वीकृत संयोग। स्पष्टतः यह मनीषी महामानव समुद्र की तरह गुरु-गम्भार है। समस्त संसार की विचार-सरिता इस महासागर में निमज्जित होकर इसमें एकरस हो चुकी है। लगता है, भगवान महावीर की वाणी "मित्तो मे सव्वभूएसु वैरं मज्झं न केणई" ने ही आपको आतिथ्य की कामना दी है। अत्नकल्याण, लोक मंगल तथा विश्वजन हिताय के जैनानुशासन का सार्वभौम उद्घोष आपका अभीष्ट है, इसीलिये आपकी धर्नदृष्टि उदार है। करुणा और दया आपके उपजीव्य आधार हैं। धर्म यद्यपि शोध-विश्य नहीं है, मात्र विश्वास ही उसका शोध है जिसे अत्तनिरीक्षण या आत्मविश्लेषण कहा जाता है, फिर भी आपको सजग चेतना परम्परा और सत्य के बीच सामंजस्य स्थापित करने में सतत् संलग्न रही है। सत्य यह है कि कालभेद से मतभेद होता है और मतभेद से मनभेद । यही मनभेद विकल्प को जन्म देता है और विकल्प असमंजस की स्थिति में मानव चेतना को अस्थिर बना देता है जिसे क्रान्ति का धरातल कह लेते हैं। यहीं द्विधा उत्पन्न होती है। फलतः विचारों में संतुलन रह नहीं पाता और वाद-विवाद की स्थिति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्र-मन को विचलित कर देती है। यह सारी स्थिति कालभेद को लेकर चलती है। काल स्वयं बंधता है क्षणों में, घंटों और दिनों में, मास और वर्षों में और फिर युगों और शताब्दियों में। शायद इसीलिये सामाजिक चेतना के प्रतीक धर्म के अविरल विभाज्य-विन्दुओं के प्रवाह को काल भी नहीं पचा पाता है क्योंकि महापुरुषों और कालपुरुप के इसी अन्तर्द्वन्द्व के शोधन की आवश्यकता मनीषियों व चिन्तकों की कालजयी मेधा, सदा अनुभव करती रही है। अतीत को वर्तमान और भविष्य को भी सजग वर्तमान बनाने की साधना कितनी स्तुत्य है, यह मनीषी पाठक ही विचार करेंगे। मैंने तो इस व्यक्तित्व की चेष्टाओं की प्रतीति के लिये अपनी अनुभूति भर व्यक्त की है। भंवरलालजी की अन्तष्टि इतनी सूक्ष्म रही है, जितनी काल की गति। इसीलिये इस मौनचिन्तक की प्रज्ञा सदा वातावरण-सापेक्ष्य होते हुए भी बिखरी हुई धर्म की कड़ियों में व्यामोहरहित गांठ बांधती चली आयी है। वे कहा करते हैं कि वेदा विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिय॑स्य मतिर्न भिन्ना। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ।। आप अडिग हैं, निश्चल हैं। सचमुच विज्ञापन-रहित हैं। अपने विश्वासों को ही जीवन के नैतिक मूल्यों का आधार मानते आए हैं। यदा-कदा ऐसे अवसरों पर जब वे आलोच्य बने हैं, इन्होंने कहा है कि भतृहरि ठीक कहते हैं : निन्दतु नीति-निपुणा, यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्तिपदं न धीराः ।। अध्ययन, चिन्तन, मनन, अध्यवसाय व निदिध्यासन, आपके जीवन के स्थिर चित्र हैं। सद्गुरु साथ हैं. जैनानुशासन पास में है. अविचल निष्ठा है. फलतः इनमें विकल्प नहीं, द्विधा नहीं, एक बोध है। प्राणवान् विश्वास है। क्योंकि आपके लिए धर्म साधन और सिद्धि दोनों ही है । प्रमाण के लिए अभी-अभी एक जीवन्त प्रश्न पर आके विचार देखने को मिले हैं। भगवान् महावीर के दिव्य प्रयाण के पावन स्थल पावापुरी को लेकर एक ६०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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