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वस्तुतः मेरा अपना परिचय सर्वप्रथम श्री पारसकुमार से हुआ था । ये पूर्णतया आपकी प्रतिकृति हैं। "आत्मा व जायते पुत्रः" की प्रतीति तो मुझे आपके सान्नध्य से हो प्राप्त हुई है। परम सुशील, संयमी, सम्य व पूर्ण व्यावहारिक पुत्र, जो सम्पतिशाली कहे व माने जाने वाले वर्ग के परिवारों में खोजने से ही प्राप्त हो सकते हैं. मुझे यह आभास दे दिया था कि धन की परिधि में भी धर्म के केन्द्र बिन्दु, मानवता, सज्जनता, सहृदयता का अभाव नहीं है। ठीक यही भाव मुझे प्रिय अनुज श्री हरखचन्द के साहचर्य से ज्ञात हुआ । मुझे वे आपके पूरक प्रतीत हुए । भौतिक एवं आध्यात्तिक प्रकृति के अद्वितीय समन्वय, जहाँ आँसुओं की कीमत है, विराग का राग है और है अनुराग में विग की अद्भुत झलक । हाखचन्दजी सम्भवतया आंसू और मुस्कान के बीच की कड़ी हैं। धर्म उनका सहायक है, अर्थ उनकी प्रेरणा है और काम उनकी सृष्टि का संस्थान । शील और संकोच जो आदर और सम्मान की भूमिका अदा करते हैं, आप दोनों भाइयों को ईश्वरप्रदत्त हैं । मेरा तात्पर्य मात्र इतना ही है कि श्री भंवरलाल जी की परिधि इतनी शान्त व मनोहर है, इतनी सर्जनशील व प्रभुताविहीन है कि ऐसी परिस्थिति में ही उनके सम्पूर्ण गुणों को परख हो सकती है ।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय व अपरिग्रह आदि जैनधर्म के मूल-भूत सिद्धान्तों की विस्तत व्याख्यायें हैं. विविध परिणतियाँ हैं । साध व गृहस्थ-धर्मों के पृथक्-पृथक आचरण भी हैं। विधि-निषेध की विभिन्न मर्यादाओं की भी सीमाय नहीं हैं। लेकिन सतत् जागरूक व्यक्ति मत-मतान्तरों, दार्शनिक-विवादों एवं विधि-निषेधों से ऊपर होता है। सिद्धान्त वस्तुतः आचरण की मर्यादा निर्धारण करने में सहायक होते हैं । वे स्वयं आचरण नहीं होते फलतः विश्वासों में तर्क, सिद्धान्त के निर्णय के लिए गौण बन जाते हैं। कर्तव्य श्रद्धा चाहता है और आचरण सामाजिक विश्वास। या थोड़ा ऊपर उठने पर हम कहेंगे कि आचरण आत्मविश्वास चाहता है जिसमें पर का भी समान अस्तित्व होता है। वस्तुतः परम्परा निर्वाह अन्य वस्तु होती है और कर्तव्यनिष्ठा अलग । यदि कहीं दोनों का सम्मिश्रण उपलब्ध होता है तो वह अद्भुत होता है। इसीलिये साधारण व्यक्तत्व से वह व्यक्तित्व विशेष हो जाता है और उसे हम महान आत्मा कहने को बाध्य होते हैं। श्री भँवरलालजी में जैनधर्म साकार दृष्टिगोचर होता है । जहाँ जो कुछ है. मनसा-वाचा-कर्मणा है, द्विधा नहीं और इसीलिये द्विधा के प्रति आवेश भी नहीं । आक्रोश नहीं
और न ही शिकायत ही है क्योंकि आचरण में किफायत नजर नहीं आती। यहाँ परम्परा है । परम्परा की आनुभूतिक धरोहर है। तर्क और सिद्धान्तों के मनन की चिन्तनधारा है. विश्वास और श्रद्धा है। तेरापंथ भी उनके लिये उतना ही सहज वोध्य है, जितना मन्दिर मार्ग। यहाँ धर्म बाह्याडम्बर नहीं जितना दिखावा है. वह लोकाचार है। फलतः आपकी साधना एकांगी नहीं, सर्वागीण है । मुनि जिनविजय तथा मुनि कांतिसागर, कृपाचन्दसूरि और श्री सुखसागरजी. मुनि पुण्यविजय, श्री हरिसागरसूरि, मणिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि के सत्संग ने आपको धर्म-चेतना दी है तो मुनि नगरराज, मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम', जैसे व्यक्तित्व ने आपको अपना स्नेह दिया है। बुद्धिगम्य-ग्रहण आपकी मानसिक पुकार है, संस्कार-जन्य स्वीकार आपके हृदय की । नयन की भीख भंवरलालजी को अनुकूल है. पर अन्तश्चेतना की पावन धारा, जिसमें आपका मन अवभृथ स्नान करता है, वहाँ आपका एक अलग अस्तित्व भी है। उस मानसतीर्थ में सबके लिये समान स्थान है। अनेकान्तवादी विचारधारा ही आपके एकान्त व सार्वज नक चिन्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकी है। सद्गुरु श्री सहजानन्दजी, जिन्हें देखने व सनने का एकबार मझे और जो आपके दीक्षागुरु भी हैं। मुझे यह लिखने का साहस देते हैं कि भंवरलालजी मन और वाणी से अपने गुरु
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