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________________ . प्रज्ञाचक्षु ही इसे विश्वास दे सकेगी। इस गम्भीर चेतना पुंज, सरस्वती के वरद्र-पुत्र के जीवन का जितना भी अंश साकार हो सकेगा. उतनी अपनी समझ, शेप अपनी अल्पज्ञता की विवशता ही होगी। शास्त्र कहता है--- "क्वचित्-सल्वाट निर्धनम्" यह धन-सम्पत्ति भोगोपकरण भी हो सकते हैं और विद्या-बुद्धि, यश, मान, ज्ञान और भक्ति भी प्रशस्त ललाट, मांसल स्कंध, विस्तृत वक्षस्थल, घनी मूंछें निर्मल दृष्टि तथा चिन्तन शील मुकुटि विलास आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रतीक हैं. रीति-नीति परम्परा के परिवेश में अतीत के उज्ज्वल व तपस्यारत महर्षि के ओजसे आमासित भव्यरूप सहज आकर्षक बन जाता है । लक्ष्मी आपको प्यार देती है और सरस्वती प्रातःकालीन सनीर के समान दुलार तथा शक्ति स्वयं अनवरत अध्यवसाय की सतत् प्रेरणा में दत्तचित्त रहती है । भगवान् महावीर का अनुशासन आपको आत्मबोध देता है और सद्गुरु सहजानन्दघन की दीक्षा आपको आत्नबल । संयन आपका आचरण है और अध्ययन आपको आत्मनिष्ठा निष्काम कर्म आपने साकार हुआ है और ध्यान व धारनाओं की संगति ने आपके भीतर और बाहर की अनुभूति और कृतिको समन्वित कर रखा है। निर्मल चित्त, विमल मानस तथा तपःपूत आचरण जिस दुर्लभ व्यक्तित्व का निर्माण कर सके हैं. वह अन्यत्र दुर्लभ है । आश्चर्य यह है कि नितान्त आत्मोन्मुख होकर भी आपका सामाजिक जीवन इतना व्यस्त है कि अन्तर्विरोध के कारण भी कारणों का आधार चाहते हैं। सम्भवतया दोध की स्थिति में व्यक्ति व्यक्ति न रहकर समाज हो जाता है। समरसता शायद समदृष्टि की अमर साधना का ही फल होती है । कहते हैं कि अनुभूति की तीव्रता ही अभिव्यक्ति की आधारशिला होती है और इसीलिये संवेदनशील प्रकृति साधारणीकरण के आवेग के प्रबल प्रवाह को रोक नहीं पाती. और इसीलिये आपमें अवरोध नहीं अस्वीकार नहीं । जो कुछ है सहज है, सरल है, ग्राहय है और अनुकरणीय है । एक धनीमानी और समृद्ध परिवार ने आपको जन्म दिया है । अभाव के संसार से दूर, भावनाओं के संसार में आत्मविश्वास के चरण सतत् गतिशील रहे हैं। इसका प्रधान कारण एक वृहत् परिवार की संयुक्त व समन्वित पवित्र प्रेरणा, परिचर्या तथा पावन परम्परा ही रही है । अर्थ, धर्म और काम के लिये जीवन कभी व्यग्र नहीं हुआ। पूर्वज कर्मठ थे। पिता श्री भैरुदानजी तथा पितृव्य श्री शुमराजजी मेघराजजी व अगरचन्दजी की छत्र-छाया में साधना और सिद्धि को भौतिक संतुष्टि आपको तीनों ही पुरुषार्थों को सुलभ बना रखी थी । आज भी वही वातावरण बना रहा है। पितामह श्री शंकरदानजी की व्यावहारिक एवं व्यापारिक कुशलता आपको निद्वंद्र, निर्भीक एवं निरापद बनाने में सहायक हुईं है यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता । इतने बड़े कुटुम्ब में व्याप्त पूज्य पूजक भावनाओं की धार्मिक हित आज के वेयक्ति परिवारों की दुनिया में अम्मर नहीं तो दुर्जन अवश्य है । अर्थोपार्जन व कर्मभोग की स्वाभाविक गति में धर्म-साधना का मणिकांचन संयोग भी आपके परिवार की ही विशेषता रही है । साधु-समागम, तीर्थाटन, जप, तप, दान व मन्दिर निर्माण, धार्मिक उत्सवों के अवसर पर सक्रिय धार्मिक कृत्य आदि त्याग, संयम व अपरिग्रह की मनोवृत्ति परिवार के प्रत्येक प्राणी के लिए अभीष्ट है । फलतः कर्तव्य निष्ठा के साथ-साथ आपकी प्रकृति में सौजन्य, कुलीनता तथा निरभिमानी व्यावहारिक, सामाजिक व धार्मिक चेतना का समन्वय मिलता है तो आश्चर्य नहीं, वरन् संतोष ही होता है। आप कुलदीपक हैं, परिवार की मर्यादा हैं, अपने समाज के प्रकाश स्तम्भ हैं और अपने जीवन की ज्योति है जो अनेक जन्म-संसिद्धि के रूप में आपको अनायास सलम ५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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