SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री भँवरलाल नाहटा -शास्त्री शिवशंकर मिश्र जीवन स्वयं एक साधना है और सिद्धि की प्रतीति भी। जीना, जीने की कामना और जीनेको जीवन का लक्ष्य बनाये रखना, तीनों ही चेष्टायें साधारण मानव-जीवन में सभीष्ट होती है। पर महापुरुषों, चिन्तकों व मनीषियों के जीवन की कलायें इनसे सर्वथा भिन्न होती हैं। वस्तुतः अन्तर लक्ष्य में है। जीने के लिये जीना एक अलग चीज है, जीने को शाश्वत बनाये रखने की साधना अलग है। इसी प्रवृत्तिगत भेद में मानवजीवन की साधनाविधाओं में भी अन्तर हो जाता है। भौतिक सुख की खोज में व्यस्त जीवन के क्रियाकलाप और आध्यात्मिक सुख की सिद्धि की साधना तथा सामाजिक सुख-समृद्धि की कामना को प्रतिफलित करने की रससाधनाओं में पर्याप्त अन्तराल होता है, परन्तु कुछेक कर्मयोगी ऐसे भी होते हैं, जो भौतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक सभी सुखों के प्रयास में सामंजस्य बनाये रखने में सफल होते हैं । ऐसे महामानव प्रायः विरले ही होते हैं । प्रारब्ध इनके लिये हस्ताम्लकवत् होता है। ये संचित कर्म के प्रातिमज्ञान के धनी होते हैं और इसीलिये इनके क्रियमाण कर्म इन्हें सशक्त बनाये रखने में समर्थ होते हैं। ऐसे विरल कर्मठ व्यक्तियों का जीवन प्रायः आत्मोन्मुख ही होता है क्योंकि आसक्ति में इनकी आस्था नहीं होती, केवल कर्म ही अथ होता है और वही इति भी। सम्मान, यश और प्रतिष्ठा इनके मोग्य नहीं। श्रद्धा और आदर इनको देय है. ग्राहय नहीं । सम्भवतया इसीलिये श्रेय और प्रेम दोनों ही इन्हें ढंढ़ते फिरते हैं। समाज की सजग चेतनायें इनके समक्ष स्वयं श्रद्धावनत होती हैं और इन्हें अपनी कृति का सुयश प्राप्त करने का सहसा अवसर प्राप्त हो जाता है। अपनी स्वाभाविक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का जो मुझे अवसर मिला है, उसकी प्रतीति के आधार 'श्री नाहटा-बन्धु हैं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने श्री अगरचन्द नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटा को इसी नाम से पुकारा है और इनकी देन को विज्ञापनरहित साहित्य-साधना की अमर प्रवृत्ति की संज्ञा दी है। मेरा अपना सम्पर्क दोनों ही चिन्तकों से रहा है। आप दोनों चाचा और भतीजे हैं। एक साधना है तो दूसरा सिद्धि । इनके पूरक प्रयत्न इतने मिश्रित हैं कि "को बड़ छाट कहत अपराध. गणि गुण दोष समुझिहहिं साधू". महात्मा तुलसीदास की विनम्र प्रार्थना ही सहायक हो पाती है। वैसे एक कारण है तो दूसरा कार्य, एक प्रतीति है तो दूसरा प्रतिफलन, एक ज्ञान है तो दूसरा भक्ति या महाप्राण निराला के शब्दों में एक विमल हृदय उच्वास है तो दूसरा कान्तकामिनी कविता का प्रतीक । फलतः जीवन, जीवन की विधि, उसकी गति व जीवन की समस्त सारभूत प्रक्रियाओं में अभेद समानता इन्हें पृथक् रूप में नहीं देख सकती। वैसे सेव्य-सेवक भावनाओं में जो एकरसता है. वह अनिवार्य रूप से इनमें अंत-प्रोत है। श्री भंवरलालजी नाहटा के व्यक्तिगत, सामाजिक, साहित्यिक व आध्यात्मिक जीवन की झाँकी यह मैं प्रस्तत करने जा रहा है। प्रस्तुत आकलन अंतरंग साहचर्य को कहाँ तक सजीव बना सकेगा. सहदय पाठकों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy