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________________ श्री कल्याणमन्दिर स्तोत्र (पद्यानुवाद) हरिगीत छन्द औदार्य वाले अघ विनाशक निकेतन कल्याण के श्रेष्ठतम् हैं। अभयप्रद भयभीत जगजन प्राणि के ॥ संसार सागर डूबते जन अशेष को जलपोत सम । उद्धारकारी जिन चरण-कज में नमन करते हैं हम ||१|| गुण के महोदधि जिनेश्वर की स्तुति करने को स्वयं । असमर्थ सुरगुरु विपुल मति हैं येन कृत वादी जयं ॥ कमठ शठ अभिमान चूरक धूमकेतु धूमकेतु भस्मकर | सम तीर्थपति की अल्पधी में क्या सकूंगा स्तुति कर ||२|| हे नाथ, साधारणतया भी रूप वर्णन आपका। मैं मन्द बुद्धि व्यक्ति कैसे करू तव गुण गाथ का ॥ अंधा दिवस का घूक शिशु क्या दिनमणि की वर्णना। समरथ कभी होगा ? नहीं, मेरे लिये त्यों समझना ||३|| मोहक्षय केवल्य प्राप्ति से जो नर अनुभव करे। नाथ तब गिनने गुणों की ना कभी क्षमता धरे ॥ कल्पान्त जल फैला तभी है रत्नराशि अमाप जो । असमर्थ हो जाएँगे करने सभी गणना माप को ||४|| जड़ बुद्धि मैं उद्यत हुआ हूँ स्तवन करने नाथ का । गुण असंख्य गुणोदधि के कथन विस्तृत गाथ का ॥ फैलाय निज भुज बाल जैसे उदधि के विस्तार को । वर्णन करे त्यों मैं भी कहता प्रभु गुणों के पार को ||५|| ११४ ] Jain Education International आपके निःसीम गुण की वर्णना तो योगिजन । असमर्थ करने को बताये तो कहाँ अवकाश मम ॥ अविचार मूलक कार्य मेरा मेरा तदनुरूपी जानिये । पक्षिगण अव्यक्त बोले त्यों मुझे ही मानिये ||६|| मन वचन से अज्ञात महिमा तव स्तुति तो दूर है। नाम से भी भव भ्रमण हो जाए नष्ट जरूर है ।। तीव्र आतप ग्रीष्म में पीड़ित पथिक जन पद्म-सर। की बात क्या ? उसकी सरस वायु भी है आनंदकर ||७|| - जब हों विराजित आप स्वामी नाथ ! मानव के हृदय । कर्म-बन्धन प्रबलतम जाते शिथिल हो अभय मय ॥ वन मध्य चंदन वृक्ष के सब सर्प मय बन्धन शिथिल । मयूर का आगमन जय हो भाग जाते सर्प मिल ||५|| जिनेन्द्र प्रभु के दर्शनों से शत-शत उपद्रव नष्ट हो। तत्काल मानव के सभी जो भी भयंकर कष्ट हो । तेजस्वी नप गोपाल भानु के दरश से चोर ज्यों सब भाग जाते हैं पशुजन मुक्त निर्भय होत त्यों ||९|| किस तरह तारक जिनेश्वर। आप भविजन भक्त के वे हृदय स्थिर कर आपको ही तैरते भव समुद्र से ॥ किन्तु सही यह बात है ज्यों पवन से पूरित मशक वायु प्रभाव है वस्तुतः जा मध्यस्थित नहीं लेश शक ||१०|| हतप्रभ हुए हैं हरिहरादि देव रतिपति सामने । क्षण मात्र में प्रविनष्ट कर डाला है भगवन् आपने || जल शान्त करता अग्नि को है उस उदधि के वारि को । वडवाग्नि दुर्दर लील जाती है त्यों मारा मार को || ११|| हे नाथ, शरणागत अपरिमित निःसीम है जो प्राणिजन अप्रयास ही निस्तार हो जाते भवोदधि शीघ्रतम ॥ धार निज हृदये तुम्हें आश्चर्यकारी दाव है। मानना होगा महापुरुष का अचिन्त्य प्रभाव है || १२ || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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