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कर दिया प्रभु आपने प्रविनष्ट क्रोध कषाय को । ध्वस्त फिर कैसे किया है कर्म तस्कर राव को ॥ सत्य शत प्रधान भी हिमपात ज्यों वनराजि को । दग्ध कर देते प्रभु, त्यों अष्ट कर्म समाज को ||१३||
संधान रत ज्यों योगिजन हैं हृदय में प्रभुरूप को । निश्चय कमल दल कर्णिका में राखते जिन भूप जो ॥ कान्तिमय जीवन अमल है अन्य स्थल भी तो कहो। संभव नहीं है यही कारण धार्य करते मौन हो ||१४||
करते आपका ।
जिनेन्द्र ! संसारस्थ प्राणी ध्यान अशरीरी होते देह तज क्षण मात्र परमातम दशा || ज्यों धातुएँ मृतिका में मिश्रित तीव्र अग्नि संयोग से । दृषद् क्षय स्वर्णत्व प्राप्ति होत दीप्ति ओज से ||१५|| जिस देह माध्यम भक्तजन भवदीय अन्वेषण करें । नष्ट कर देते उसे आश्चर्य नहीं पोषण करें || सत्य है निष्पक्ष मध्यस्थ महानुभाव स्वभाव यह । आश्रितों के क्लेश विग्रह हटा दें सद्भाव सह ॥ १६ ॥
अभेद बुद्धि प्रभाव से ध्याता विबुध जन आपके । आप सदृश आतमा सप्रभाव हों गत पाप से ॥ मणि मंत्रमंत्रित वारि जैसे अमृतोपम हो गया। विषजन्य सर्व विकार का अनिवार्य ही नाशक गया ॥ १७॥
हरिहरादि अन्य को जो ईश बुद्धचा मानता। गुण वीतरागी भाव से वास्तव में तव शरणागता ॥ पीलिया रोगी ज्यों शंखादि में पीले रंग को । नहीं देखता क्या ? त्यहि दृष्टि-रागि अपने अंग को ||१८||
धर्मोपदेश सामीप्य से सुप्रभाव वृक्ष अशोकला । पाता है मनुज समाज त्योंही शोक रहित अमोघता ॥ त्याग करता नींद मानव उदित सूर्य प्रताप से । त्यों जीवलोक प्रबुद्ध होते कमल अपने आप से || १९||
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सुर पुष्प वृष्टि समवशरणे वृन्त बंध अधोमुखी । गिरते हैं अविरल विकस्वर त्यों मनुज होता सुखी ।। सुमन शोभन चित्त वाले आपके उपदेश से । नर-देव बंधन रहित हों सद्बोधअमृत लेश से ||२०||
गंभीर हद्गत आपके उत्पन्न वचन मनोहरा । अमर भव्यों को बनाने अमिय की उपमाधरा ॥ श्रवण पुट से पानकर जरा-जन्म-मृत्यु दुःख से छूट जाते भव्यजन हो तुष्ट आत्मिक सुख से ||२१||
श्वेत चामर को दलाते देख झुककर उच्चतर | भक्ति प्रेरित देवगण रहस्य मय प्रतिहार्य कर ॥ देते मौन सूचना हैं नम्रता से नमो इन्हें । ऊर्द्धगति निश्चित मिलेगी मोक्ष पाना है जिन्हें ||२२||
प्रभु रत्नमय उज्ज्वल सिंहासन पर विराजित हों जभी। गंभीर ध्वनिमय देशना सुनते हैं भव्य मयूर भी ।। द. खते ऐसे हैं मानो स्वर्ण मेरु शिखर पर ।" नव मेघ गर्जित उच्च स्वर आलोकते आश्चर्य भर ||२३||
नील कान्ति उठ रही जो नाथ दिव्य शरीर से । अशोक तरु के लाल पसे बदरंग लखें अधीर से ॥ वीतराग वाणी आपकी प्रभु ! श्रवण कर दें ध्यान भी। प्राणी सचेतन कौन हैं? वैराग्य प्राप्त न हो तभी ||२४||
हे मोक्षपुर के यात्रियों ! आलस्य आलस्य व्यागो शीघ्रतर । सेवा करो जिनदेव की आकर बनो अजरा अमर ॥ देव दुभि व्योम गुंजत दे रही चेतावनी । ये सार्थपति निवृत्तिपुरी के चरण सेवो सिर नमी ||२५||
आलोक प्रभु है आपका त्र्यलोक व्यापी हो रहा। तप हटा जब चन्द्र तारा का अधिकार नहीं रहा । मुक्ता जटित ही चन्द्रमा मिस तीन छत्रों के सही । सेवार्थ प्रस्तुत हो गया मानों सुशोभित वन यहीं ॥२६॥
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