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माणिक्यमय अरु हेममय हैं रौप्यमय त्रय कोट जो। कान्ति प्रताप यशपिण्ड ही दीखते गिरि ओट सो ॥ विस्तृत हुए सर्वत्र प्रभु गुण स्थान रिक्त नहीं मिला। समवसरण प्रभु के चतुर्दिक व्याज से शोभित किला ||२७||
देवेन्द्र नमते आपको तो पुष्पमाला दिव्य भी । रत्नमय मौलि मुकुट राजई आश्रित भव्य थी ॥ उचित ही है कार्य उनका श्री चरण शरणा ग्रहे । सुमन शोभन पुरुष भी अन्यत्र सन्तुष्टि न लहे ॥२८॥
हे नाथ भवजल उदधि से तो पराङ्मुख प्रतिकूल हैं। पर भक्त आश्रित जन सुनिश्चित तारते बिन भूल हैं । घड़ा मिट्टी का अधोमुख नदी पार उतारता । आश्चर्य कर्म विपाक विरहित यही तत्व की सारता ||२९||
जन सर्व प्रतिपालक प्रभु हैं, ईश सारे विश्व के । दुर्ज्ञेय दुर्लभ हैं, अपितु संसार वासी जीव के || अक्षर स्वभावी नित्य हैं अलिपि अलिप्त महान हैं। रक्षा करे अज्ञप्राणी की स्व पर प्रकाशी ज्ञान है ||३०||
धूलिवर्षा कमठ शठ ने की भयंकर नाथ पर । क्रुद्ध था वह दशभवों से दिया समग्र आकाश भर || विगड़ा न कुछ भी आपका छाया मलिन भी नहीं हुई। स्वयमेव ग्रस्त दुरात्म वह प्रभु ध्यानमग्न रहे सही ||३१||
हे जिन । कमठ उस दैत्य ने गर्जन भयंकर मेघ से । कर वृष्टि मूसलधार विद्यत् कड़कती अति वेग से ॥ अथाह दुस्तर वारि से भी नहिं कुछ हानि हुई । अपितु दुरात्मा कमठ को असिधार सम परिणत भई ||३२||
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केश विखरे अग्निमुख विकृत वदन नरमुण्ड की माला पड़ी कुत्सित भयंकर पिशाचों के कण्ठ थी ॥ अप्रभावित प्रभु रहे उसके भयंकर जाल से । भव भव भयंकर दुःख से वह ग्रस्त कर्म जंजाल से ||३३||
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हे त्रिजग स्वामी धन्य है जो भक्त आराधन प्रशस्त त्रिकाल उपासना करते प्रभु चरणों रोमा हो उल्लास पूर्वक अन्य साफल्य लाभ करें वही संसार से
करे |
पड़े | पड़े ॥
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कारज छोड़ के मुख मोड़ के ||३४||
हे मुनिपति ! संसार सागर में अनन्ते काल से । परिभ्रमण में करता रहा मिथ्या अनादि चाल से ॥ देखा सुना नहीं नाम गोत्र प्रभु के सुपावन मंत्र को अन्यथा ये विपत्ति नागिन क्यों ग्रसत मम तंत्र को || ३५॥
जन्म जन्मान्तर कमी नहीं आपके प्रभु चरण की। अभीष्ट फल दातार जो साफल्य अशरण शरण भी ॥ आराधना न उपासना की खेद खिन्न बना प्रभु । अन्यथा क्यों हृदय द्रावक तिरस्कृत होता विभू ||३६||
अवश्य हा मम नेत्र पर मोहान्धता छायी रही । वंचित रहा प्रभु दर्शनों से मानता मैं तो यही ।। अन्यथा ये मर्मभेदी अनर्थ पीड़ा जो सही । तत्र भक्त तो होता कभी भी दुःख का भाजन नहीं ||३७||
जग बन्धु ! ध्याया नाम पावन सुना या दर्शन किया। हो बाह्य द्रष्टा भाव भक्ति हीन बिन निर्मल हिया ॥ यही कारण आजतक मैं दुःख भाजन हो रहा। भाव शून्य क्रिया कभी नहीं सफल शास्त्रों में कहा ||३८||
हे दोन-बन्धी नाथ पालक आप है शरणागता । जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ परम कृपालु धाम पवित्रता ॥ सद्मक्ति नत हूँ महेश है। मुझ पर दया दृष्टि करो। संसार दुःख की जड़ उखाड़ो शीघ्र तत्परता करो ||३९||
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हे तीन लोक पवित्र कर्ता अशरण शरण हैं आप तो । के चरणावलंबन प्राप्त जन नष्ट करते पापको ॥ दुर्भाग्य में पाकर भी स्वामी ध्यान शून्य सदा रहा। हत कर्म से हूँ खिन्न भगवन् ! अब नहीं जाता सहा ||४०||
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