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एवं परदुःख कतर को देखकर। आपको भाषण शैली बड़ी नधुर व तथ्यों से परिपूर्ण रहती है जो श्रोतागण पर अपनी अमिट छाप छोडे बिन नहीं रइत । आपके द्वारा लिखित कहानियाँ सरल भाषा में व शिक्षाप्रद होती हैं। आपके द्वारा सम्पादित नासिक-पत्र 'कुशल निर्देश' समाज व देश की बड़ी सेवा कर रहा है ।
-देवेन्द्रकुमार कोचर
हिन्दी साहित्य-सेवियों में यह प्रथा रही है कि यदि कोई निबंध, कविता या पुस्तक का प्रणयन उनके ही परिवार के किन्ही दो या अधिक सदस्यों, विशेष कर दो या तीन सगे या नजदीकी रिश्ते के भाइयों द्वारा हुआ हो तो उसमें लेखक के रूप में इन प्रणेताओं के नाम न देकर कुलनाम का उल्लेख कर उसके साथ बंधु या त्रयी जैसे शब्द को जोड़ कर उसका प्रयोग कर लिया जाता है । हिन्दी में ऐसे कई युग्म शब्द देखने में आये हैं । यथा मिश्रबंधु. याज्ञिकवंधु आदि। मिश्रबंधु से तो हिंदी साहित्य का प्रत्येक पाठक भली-भांति परिचित होगा। निबंधु से तात्पर्य मुख्यतः चोटी के दो विद्वान् भाइयों से है-श्री श्यामबिहारी मिश्र एवं श्री शुकदेवबिहारी मिश्र । कमी-कभी ग्रन्थ-प्रणयन में इनके एक और भाई श्री गणेशबिहारी मिश्र का भी योगदान पाया जाता है। इसी प्रकार याज्ञिक बन्धु से तात्पर्य श्री भवानीशंकर याज्ञिक, श्री जीवनशंकर याज्ञिक एवं श्री मायाशंकर याज्ञिक से है।
राजस्थान में और विशेषकर बीकानेर में राजस्थानी साहित्य के प्रणयन में लगे विद्वानों के लिये भी इस प्रथा का व्यापक अर्थ में प्रयोग हुआ है । राजस्थानी-त्रयी शब्द का जब भी और जहाँ कहीं भी प्रयोग होता है उससे तात्पर्य ठाकुर रामसिंह, पं० सूर्यकरण पारीक एवं पं० नरोत्तमदास स्वामी से होता है। इसमें एक विशेषता यह है कि ये तीनों विद्वान् लेखक अलग-अलग परिवार के थे। यद्यपि राजस्थानी के उन्नयन कार्य में वे इस तरह लगे थे कि तीन देह एक प्राण से प्रतीत होते थे। राजस्थानी व जैन साहित्य की सेवा एक अन्य परिवार की भी अनुपमेय रही है। वह परिवार है नाहटा परिवार । प्राचीन राजस्थानी व जैन साहित्य-ग्रन्थों की खोज और उनके शोध में लगे नाहटाबन्धु की सेवा इस कोटि की है कि ऐसा परिश्रमी और अपनी धन में लगे इन महानुभावों के कार्य की गहराई में पहुंचना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। नाहटाबन्धुओं से मेरा तात्पर्य स्वर्गीय अगरचन्दजी नाहटा और उनके बड़े भाई के पुत्र तथा इस लेख के चरितनायक श्री भंवरलालजी नाहटा से है। श्री भंवरलालजी के पूज्य पिताजी का नाम श्री भैरूदान जी नाहटा था। चाचा श्री अभयराज जी का निधन काफी छोटी आयु में हो गया था । भंवरलालजी आयु में अपने पितृतुल्य स्व० अगरचन्दजी नाहटा से केवल छः महीने ही छोटे हैं। इसी कारण अगरचन्दजी नाहटा को अपने शोध कार्य में व पुराने हस्तलिखित ग्रन्थों को एकत्र करने में श्री भंवरलालजी का अनुपम सहयोग प्राप्त हुआ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक भ्रांति बहुत समय से चली आ रही थी। हिन्दी साहित्य के विद्वान जिनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं डा० श्यामसुन्दरदास शामिल थे जटमल नाहर की गोरा-बादल की कथा को हिन्दी की प्रथम गद्य रचना मानते थे। वास्तव में यह एक गद्य-रचना न होकर पद्य रचना थी। इस भ्रांति के निराकरण में स्व० नरोत्तमदास जी स्वामी को भंवरलाल जी नाहटा ने अपना पूरा सहयोग प्रदान किया। स्व० पूरणचन्द जी नाहर के
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