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________________ नमूने के तर पर ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ नीचे उद्धृत की जाती हैंआदि नीचे :: बिन्दी देकर काम चलाया है। दूसरी मात्राओं के प्रयोग में विशेष परिवर्तन नहीं है पर दीर्घ ईकार पाठक को भ्रम में अवश्य डाल देता है क्योंकि मात्रा विशेष ऊँची न ले जाकर 'आ' कार की तरह ही है. जबकि आकारान्त खुले-मस्तक की अलग पाई है और ईकारान्त व्यञ्जन से मिला हुआ है। पूर्णविरामादि के लिए प्रत में। या । के चिह्न हैं किन्तु स्थान-स्थान पर अक्षर-वाक्यों के आगे-पीछ विसर्ग चिन्ह ':' का प्रचुरता से व्यवहार किया है, जो तत्कालीन महानुभावी सम्प्रदाय की अन्य मराठी संकेत-लिपियों में भी दृष्टिगोचर होता है। महानुभावी पंथ की सांकेतिक लिपियों को महाराष्ट्र के दो-एक विद्वानों ने पढ़ने का प्रयत्न किया है। इसमें उन्हें महाराष्ट्र भाषा का ज्ञान बहुत सहायक सिद्ध हुआ। किसी भी ग्रन्थ की भाषा का ठीक ज्ञान हो तो लिपि के अक्षरों का अनुमान लगाने में बड़ी सहायता मिलती है और तुरंत निर्णय पर पहुंचा जा सकता है । हमने हस्तलिखित ग्रन्थों की प्राचीन लिपियों का अभ्यास, उन ग्रन्थों के प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती भाषा में होने से, सुगमता से कर लिया था, पर इस गुटके की लिपि की समस्या उससे सर्वथा भिन्न थी। इस ग्रन्थ को पढ़ने में दो कठिनाइयाँ थीं—एक संकेतलिपि की और दूसरी महाराष्ट्री भाषा की। मैं ठहरा दोनों विषयों से अनभिज्ञ, अतः पाठक मेरी परेशानी को स्वयं समझ सकते हैं। जिस भाषा के शब्दों का भी ज्ञान न हो तथा जिसकी लिपि भी अज्ञात हो, उसका प्रथम परिचय देने में अशुद्धियों का बाहुल्य अवश्यम्भावी है. पर वह एक अज्ञ व्यक्ति द्वारा सम्पादित होने के कारण उतना ही क्षतव्य और विद्वानों द्वारा संशोधन-विषयक सुझाव प्राप्त करने का अधिकारी भी है। श्री परेशाय नमः ||0|| फळे ठा-1] कराया ब्राह्माणा चा धरी :रू: स्विकरिला :: केतुला एकू दीसू राज्य केलें । :४: श्राद्ध जालें तः ३: भार्या रतिचिया चाडा लेः । णेः ते व्हेळि ब्रह्मचयाची-:मः तें निमित्त करूणि माता पुरायें: ते य देव-रीत विजें करिताः श्रीदत्तात्रये प्रभूम्या श्री चा वेखुधरूनि जाळी तळौणि न्यः हो की धलाः श्री मुकुटावरि चवडा ठेविला : लोकु-या-तो परतागेलाः तेथ शक्ति स्वीकरिलाःःः स्विकरिला ऐसी एकि वासना ::२: युद्वारावत्ति जीए तवः ३तेथ होते :२:३-द्वारावति-||१||३: द्वारावत्ति जीए तवंः ३ तेथ होते २:३:-द्वारावति-:॥१॥३: द्वारावतिए सिखरा"डीति :२: सुपोंपुंजे भरीतिः ॥ वरिठेवीतिः गोमतियें मध्य"माणु प्रकटे खराँटेणि विद्याः ||२||""तिःयें सयासु स्विकरिलाः म रूद्धि पूरा ये ते थौणि माग तें द्वारावतिये येः गोमतियेचां तीरी जपत होतेः पूढां दंडुरोविला:ो तेथ :३: ये टाः वरि सु पठेविले वः खरांटेणि हाणि तलें दंडुमोडुणि गोमतिये मध्ये घातला तेथःओंः शक्ति स्विकरिलीः दुसरी वासणारू: स्वीकरिला :२: त्राद्वि पुरा येः ।।३।। अन्त्य-पुष्पिका पूर्वामुखें गुफै अवस्थान जालें : प्रशराम वाः एरागुंफे रामेश्वरा बा : ६||९||८|| एवं पूर्वार्द्ध पावा पाठं संपूर्ण समाप्तः 10.10|| श्री शके १५२५ शुभकृत नाम सवछरे वैशाख शुद्ध अक्षत्रीतिया सोमवारें जाबु गांवी लेखन आरमिले तेंः जष्ट बदि शष्टी शुक्रवारें जांबुगावी लेखन संपले : प्रांत आसुटी हरीचन्द्राची: शुभंभवतु : लेखक पाठकयो: वाचिता विजयाहो ॥छःछिः।10110||ollo|| १५४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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