________________
कोई कष्ट नहीं होता था, पर अब उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् स्थिति बदल गई है। अब किसी ग्रन्थ को ढूंद निकालना आसान काम नहीं रह गया है क्योंकि न तो ग्रन्थ भाषावार दर्ज हैं, न विषयवार तथा अकारादिक्रम का तो प्रश्न हो नहीं है। यद्यपि ग्रन्यालय के लिये एक न्यास बना हुआ है. पर वह संभवतः आर्थिक पहलू की
ओर ही जागरूक प्रतीत होता है । अभी-अभी 'अगरचंद-भंवरलाल नाहटा शोध संस्थान' की स्थापना की गई है। आशा है यह संस्थान शीघ्र ही प्रत्येक भाषा के लिये अकारादिक्रम से विषयवार रजिस्टर तैयार कराएगा . ताकि आने वाले शोधार्थी इस दुर्लभ सम्पदा से लाभान्वित हो सकें और यह सम्पदा केवल बस्तों-बुगचों की सम्पत्ति न रहे।
शोध संग्राहकों में कितनी तल्लीनता अपेक्षित है, यह भंवरलाल नाहटा के शब्दों में पढ़िये : "उन दिनों हमें एक ही धुन सवार थी कि संग्रह कैसे हो? रात में सोते हुए स्वप्न मी ऐसे ही आते. कभी तो किसी ऐतिहासिक स्थान के दर्शन होते, कभी हस्तलिखित ग्रन्थ-चित्रादि दीखते। आश्चर्य की बात है कि हरे रंग का एक चित्र स्वप्न में दिखाई दिया जिसमें भगवान ऋषभदेव अपनी पुत्रियों ब्राह्मी व सुन्दरी को लिपि सिखा रहे हैं और सामने पूरी वर्णमाला (ब्राह्मीलिपि) लिखी हुई है । श्री देवचंदजी महाराज के जन्मस्थान के सम्बन्ध की ऊहापोह में स्वयं देवचंद जी महाराज ऋषभदेवजी के मन्दिर (नाहटों की गवाढ़) के सामने मिलते हैं और अपना जन्मग्राम बतलाते हैं जो कि बीकानेर रियासत या जोधपुर रियासत में है इस ऊहापोह में विस्मृत हो जाता है। समयसुन्दरजी के माता-पिता के नाम की खोज में दूसरे ही दिन बड़े उपाश्रय के एक संग्रह के पत्रों में उन्हीं के शिष्यों द्वारा निर्मित गीत मिल जाते हैं और स्वप्न साकार हो जाता है। चित्त की एकाग्रता और संग्रह की अभिलाषा हो इसके मुख्य कारण हैं।"
प्राचीन सामग्री का एक-एक पन्ना और उसका एक-एक टुकड़ा भी कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, यह चौंकाने वाली घटना भी भंवरलालजी से सुनिए :
- "दो इंच के एक पन्ने में हमें कुछ बारीक अक्षरों में लिखे दोहे मिले, जिसमें ज्ञानसागरजी के माता-पिता का नाम, जन्म-स्थान, संवत्, दीक्षाकाल, गृह नाम, राज्य-सम्बन्ध आदि प्राप्त हो गए।"
अगरचन्दजी नाहटा का अभिनन्दन ग्रन्थ सन् १९७६ में प्रकाशित हुआ था। उसमें श्री भंवरलालजी नाहटा के लेख से पता चलता है कि इस संस्था ने इन वर्षों में किस प्रकार प्रगति की:
"गत ४२ वर्षों से हस्तलिखित प्रतियों के संग्रह का प्रयत्न निरन्तर चालू है। पर गत २५ वर्षों में इस दिशा में जितना अधिक कार्य हुआ है उतना पहले नहीं हो सका था क्योंकि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद हस्तलिखित प्रतियाँ बिकने के लिए जितनी बाहर से आई हैं, इससे पहले कभी नहीं आई। मुद्रण-युग में हस्तलिखित प्रतियों का पठन-पाठन बन्द-सा हो गया । अतः जिनके पास भी हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह था वे अब उनकी उपयोगिता नहीं रहने से बेचने को तैयार हो गये । राजा-महाराजाओं, ठाकुरों, यतियों, विद्वानों और कवियों के वंशजों ने अपने संग्रह बेचने प्रारम्भ कर दिये। जब ऐसे संग्रह उचित मूल्य में मिलने की खबर पहुंचतो तो काका श्री अगरचन्दजी बाहर जा करके भी और लोगों को पत्र लिखकर भी ऐसे संग्रह खरीदने प्रारंभ कर दिये । स्व० मुनि कांतिसागरजी का जब ग्वालियर में चौमासा था, तो उन्होंने सूचना दी कि जैनेतर, वेद आदि, ग्रन्थों का एक अच्छा संग्रह बिक
58 ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org