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से प्राप्त जानकारी के अनुसार जिस भवन में यह ग्रंथालय अवस्थित है, उसका निर्माण वि० सं० २००० में ही हुआ था, उससे पहले ग्रंथों को आलमारियां पिरोल के ऊपरवाले कमरे में थीं और बाद में शुभ विलास में भी पुस्तकालय रहा। वर्तमान भवन के निर्माण से पहले तो वह स्थान मात्र गार्यो का एक बाड़ा था। इसके अतिरिक्त भवन की पहली मंजिल पर जो शिलालेख लगा हुआ है, उस पर शंकरदान नाहटा कला भवन अंकित है और उसका स्थापना व वि० सं० २००० लिखा गया है। स्पष्ट है कि जब वि० सं० १९९९ में शंकरदानजी का स्वर्गवास हुआ. तो उनके पुत्र भैरूदान, सुभैराज, मेघराज, अगरचन्द नाहटा ने तत्काल इस भवन का निर्माण करवाकर अपने पिता की स्मृति में कला भवन स्थापित किया और घरातल मंजिल (ग्राउन्ड फ्लोर) पर अभय जैन ग्रंथालय की स्थापना की इस प्रकार वि० सं० १९७७ में जिस ग्रंथालय का संकल्प किया गया था. उसे मूर्तरूप वि० सं० २००० में ही दिया जा सका । भवन निर्माण में सुभैराजजी का विशेष योगदान रहा ।
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जिस समय प्रधालय को स्थापना हुई, केवल घरात मंजिल में ही पांडुलिपियों के बस्ते रखे गये पर उत्साही नाहटा वन्धुओं की अदम्य लगन के कारण शीघ्र ही धरातल मंजिल की सारी आलमारियां ग्रन्थों से भर गयीं और जो कलाभवन प्रथम मंजिल में अवस्थित था उसे दूसरी मंजिल में सरकाना पड़ा। यही नहीं, जो अंतर्भोम मंजिल ( तलघर ) कबाड़खाना बना हुआ था, उसका भी भाग्योदय हुआ और अभय जैन ग्रन्थालय की पाण्डुलिपियां उसमें भी रखी गर्यो इस प्रकार तीन मंजिलों में तो अभय जैन ग्रन्थालय अवस्थित है और ऊपरी एक मंजिल में शंकरदान नाहटा कला भवन ।
इस ग्रन्थालय में सुरक्षित पांडुलिपियों की संख्या में ४०-४५ हजार सुनता आ रहा था जो मुझे अत्युक्तिपूर्ण लग रही थी। अभी तीन दिन पहले जब मैंने ग्रन्थालय के सूची पंजिका का अवलोकन किया तो पता चला कि वह संख्या भी वास्तव में त्रुटिपूर्ण थी क्योंकि रजिस्टर में चढ़ी हुई अन्तिम पांड़लिपि का क्रमांक है ५६२३४ (छप्पन हजार नौ सौ चौतीस ) तथा पुस्तक का नाम है 'नख शिख वर्णन रचयिता है-बलभद्र कवि ।
क्रमांक २४६ पर 'जम्बूदीप पण्णति चूर्णि दर्ज है जिसका लेखन समय वि० सं० १४८० और लेखन स्थान डूंगरपुर है । पुस्तक में ३१ पत्र हैं, जिनका आकार २९.६४१०.८ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ६६ अक्षर हैं। इसी प्रकार क्रमांक ५८९ पर 'उत्तराध्ययन सूत्र दर्ज है जिसकी भाषा प्राकृत है। यह ३९ पत्रों में है, पत्रों का आकार ३०x६ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १५ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ६३ अक्षर है। इसका लेखन समय १५१७ वि० सं० है क्रमांक १३४ पर 'उपासक दशांग सूत्र-वृति ग्रंथ है जिसके लेखक अभयदेव सूरि हैं और लेखन समय वि० सं० १५३२ है। यह वेल-बूटेदार है और इसमें १३ पत्र है। पत्रों का आकार २९.२११.२ से० मी० है । प्रत्येक पत्र में १७ पंक्तियाँ व प्रत्येक पंक्ति में ७१ अक्षर हैं । लेखन समय है- १५३२ वि० सं० मूल ग्रंथ प्राकृत में है व टीका संस्कृत में।
लगभग सात हजार पांडुलिपियां ऐसी हैं जो अभी रजिस्टरों में दर्ज नहीं हुई हैं । इस समय श्री दाऊदयाल शर्मा इन ग्रन्थों का परिचय एक नये रजिस्टर में लिख रहे हैं। अधिकांश पांडुलिपियां सत्रहवीं शती की है।
अगरचन्द नाहटा पर लक्ष्मी से भी अधिक सरस्वती की कृपा थी वे इतनी प्रवल धारणाशक्ति के धनी थे कि अपने संग्रह के सभी ग्रन्थ उनके लिये हस्तामलकवत् थे। उनके रहते किसी शोध छात्र को ग्रन्थोपलब्धि में
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